मैं एक बार गिर गया था। ऐसे गिरा होता कि लोग देख पाते तो शायद वे मुझे उठाने दौड़ पड़ते। मैं सीधा खड़ा हुआ था। मेरी चोट नुमाया न थी। ये गिर पड़ना कुछ ऐसा था कि रेत की मूरत झरकर ज़मीन पर पसर गयी है। एक अक्स लोगों की निगाह में बचा रह गया था। जिसे वे देख रहे थे लेकिन वे जान नहीं रहे थे कि अक्स मिट चुका है। मैंने हेमन्त से कहा- "क्या करूँ?" बाड़मेर के ताज़ा उजड़े बस स्टैंड की खाली पड़ी शेड के नीचे बनी बैठक पर हम दोनों बैठे हुए थे। वो उम्र में मुझसे काफी छोटा है, अनुभवों और दुनियादारी की समझ में बहुत बड़ा है। उसने कहा- "आपको लगता है कि ख़त्म हो गया है।" मैंने कहा- "हाँ" उसने अगला सवाल पूछा- "ज़िन्दगी में कितने दुःख उठाना चाहते हैं?" मैंने कहा- "कितने भी मगर ये नहीं" "अब मुड़कर न देखना। इस ख़त्म को आख़िरी खत्म रखना। एक बार के गिरने का बार-बार गिरना हताश करता है। इसे छोड़ दीजिए" मैं रेत की तरह ख़ुद के पैरों में पड़ा था। मैं अपना नाम, काम, पहचान और जीवन एक किनारे करके खड़ा हुआ था। जहां मैंने चाहा था कि इसके बाद कुछ नहीं चाहिए। वहीं प...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]