मैं एक बार गिर गया था। ऐसे गिरा होता कि लोग देख पाते तो शायद वे मुझे उठाने दौड़ पड़ते। मैं सीधा खड़ा हुआ था। मेरी चोट नुमाया न थी। ये गिर पड़ना कुछ ऐसा था कि रेत की मूरत झरकर ज़मीन पर पसर गयी है। एक अक्स लोगों की निगाह में बचा रह गया था। जिसे वे देख रहे थे लेकिन वे जान नहीं रहे थे कि अक्स मिट चुका है।
मैंने हेमन्त से कहा- "क्या करूँ?" बाड़मेर के ताज़ा उजड़े बस स्टैंड की खाली पड़ी शेड के नीचे बनी बैठक पर हम दोनों बैठे हुए थे। वो उम्र में मुझसे काफी छोटा है, अनुभवों और दुनियादारी की समझ में बहुत बड़ा है।
उसने कहा- "आपको लगता है कि ख़त्म हो गया है।" मैंने कहा- "हाँ" उसने अगला सवाल पूछा- "ज़िन्दगी में कितने दुःख उठाना चाहते हैं?" मैंने कहा- "कितने भी मगर ये नहीं"
"अब मुड़कर न देखना। इस ख़त्म को आख़िरी खत्म रखना। एक बार के गिरने का बार-बार गिरना हताश करता है। इसे छोड़ दीजिए"
मैं रेत की तरह ख़ुद के पैरों में पड़ा था। मैं अपना नाम, काम, पहचान और जीवन एक किनारे करके खड़ा हुआ था। जहां मैंने चाहा था कि इसके बाद कुछ नहीं चाहिए। वहीं पर धूल उड़ रही थी।
बरसों बाद आज फिर मैं वहीं बैठा था। हेमन्त से मैंने कहा- "मैं सोशल साइट्स के लिए ठीक आदमी नहीं हूँ। मैं लोगों को उकसाता हूँ। मैं उनकी ठहरी हुई कामनाओं में पलीता लगाता हूँ। ये सब करते हुए मैं स्पोइल हो जाऊंगा"
हेमन्त उस शेड की ओर देख रहा था। जहां कुछ बरस पहले हम दोनों एक तपती दोपहर में बैठे थे। मुझे नहीं पता कि उस तरफ देखना हेमन्त का उसी दिन को याद करना था या बेवजह एक ठहरी हुई निगाह थी।
हेमन्त ने कहा- "छोड़ दीजिए। वे जिनको आप दुःख महसूस करते हैं, उनसे क्यों जुड़े रहते हैं? आपको कितने सारे काम हैं। सुबह से रात हम एक साथ होते हैं तब ये समझ आता कि सब कुछ ओवर बर्डन सा है। आप अपने बोझ उतारिये।"
"क्या ये सब डीएक्टिवेट कर दूं। क्या लॉगआउट करके छोड़ दूं।"
हेमन्त जानता है कि दुनिया वह नहीं रही। अब हम उतने ही बचे हैं जितने सोशल साइट्स पर दिखते हैं। "आपकी किताबें और पाठक? ये भी तो एक काम है। जो काम की तरह नहीं दिखता"
मैंने कहा- "लॉगआउट करके छोड़ देते हैं। अवसाद एक अजगर है। वह आपको तब तक नहीं छोड़ता जब तक कि आपका दम घुट न जाए। इसके बाद वह आपको पूरी तरह निगलता है।"
मेरे चेहरे पर वही धूल उड़ उड़कर गिर रही थी। वह धूल जो कुछ बरस पहले मेरे बिखरने से बनी थी।