इस तरह ठहर कर किसी तस्वीर को न देखा था। अचानक वही तस्वीर फिर सामने थी। उसे फिर देखा। इस तरह दोबारा देखते हुए चौंक आई कि इसे क्यों देखा जा रहा है।
यूँ उस तस्वीर को देखने की हज़ार वजहें हो सकती हैं। उन हज़ारों वजहों से आप बच निकल सकते हैं। अपने आप से कैसे बचें, ये जुगत कठिन हो जाती है।
उस में क्या है। तुम क्या देखना चाहते हो। देखकर क्या पाओगे। बेहद होने के मुकाम तक पहुंच कर किस ओर मुड़ोगे। ऐसे सवाल बुलबुलों की तरह उठते हैं मगर वेगवती लहरें उनको बुझाती जाती हैं।
तस्वीर वहीं है। आंखों के सामने।
उसके चेहरे पर एक शांति है मगर लगता है कि अफ़सोस है। इस बात का अफ़सोस कि उसने किसी लालच में कोई बात कही थी। उसके मुड़े हुए घुटने पर एक विनम्र स्वीकारोक्ति रखी है कि तुम्हारा होना एक चाहना था। उसके कंधों पर उकेरे फूलों में शालीनता है कि वे एक दूजे पर गिर नहीं रहे। उसकी आंखें, इस बारे में कुछ नहीं कहना कि उन आंखों के बारे में कभी कुछ मत सोचो, जिनमें झूठ बोलते वक़्त भी कनमुनि तरलता थी। हालांकि तब उन आंखों में एक स्याह उदासी थी, जब उसके होठ मुस्कुरा रहे थे।
असल में ये सब एकतरफा सोचना है तस्वीर देखते हुए। उसके ज़ेहन में ये सब नहीं है। ये शायद किसी लम्बी उकताहट के बाद की तस्वीर है। इसमें उसे अपने उन दिनों की तलब है, जो किसी उम्मीद में गवां दिए थे। या शायद ये भी नहीं है। एक सुंदर तस्वीर समझ कर रख दी गयी तस्वीर भर है।
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प्रेम के बारे में कहा गया एक झूठ अक्सर बहुत सी उम्मीदों का बीज होता है। ऐसा बीज जो बार-बार अंकुरित होता है।
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