पानी पौधों के आस पास छितर गया है। आंगन की मिट्टी में पड़े पानी के पेच भले लग रहे। जलपात्र से बाहर बिखर गया पानी भी अच्छा लगता है।
छितरा हुआ पानी देखकर लगता है कि पानी बोल रहा है।
बीयर से भरा ग्लास और ग्लास से छलकती बीयर, चाय से भरा प्याला और चाय की तसली में छलक आई चाय के बीच भी बहुत अंतर होता है।
वे जो भरे हुए हैं मगर छलके नहीं हैं, वे भरे-भरे नहीं लगते। छलक जाना ही भरा हुआ होना है, बाकी सब ने तो अधिक से अधिक बचाया हुआ भर है।
मैं न छलकना चाहता हूँ न भरा-भरा रहना। मैं खाली रहना चाहता हूँ। लेकिन खाली रहना असंभव है कि खालीपन में मौन भरा होगा।
मौन सरल होता या जटिल? मैं सोचने लगता हूँ कि मिट्टी की घण्टी से एक हल्की आवाज़ आती है। मिट्टी तांबे और कांसे की तरह नहीं बोल सकती लेकिन बोलती है।
एक टूटे हुए बाजे के निचले सुर की तरह।