मैं तम्बाकू के गीले पत्तों के बीच सूखी हुई पत्तियां रखता हूँ। उनको गोल करके बांधता जाता हूँ। मेरी अंगुलियों में एक चरक सी बहती है लेकिन अंगुलियां इस तीखेपन की इतनी अभ्यस्त हो चुकी होती हैं कि वे तल्लीनता से लगी रहती हैं। एक तीखापन अंगुलियों की त्वचा को छूकर रक्त में घुल जाता है। मैं बहुत अधिक सोचता हूँ तब पाता हूँ कि सिगार बनाना भी एक नशा है।
सुबह की ठंडी हवा बह रही होती है। कभी दोपहर की उमस में अंगुलियां भीग चुकी होती हैं। और अक्सर तो शाम ढल चुकी होती है। तम्बाकू के साथ अकेलेपन की गंध मिलकर एक नई ख़ुशबू बन जाती है। लकड़ी की कुर्सी पर अधलेटा होने से पहले सिगार एक ओर रख देता हूँ। बड़े कासे में रखे पानी में हाथ धोने लगता हूँ। सूती गमछे में हाथ पौंछते हुए पाता हूँ कि गमछा रंगों की उस ख़ुशबू से भरा है जिसे सिंध के लोग बनाते रहे हैं।
ये क्या कर रहा हूँ।
कुर्सी की पुश्त से पीठ टिकाये हुए आकाश की ओर देखता हूँ। बेरी के पत्तों के बीच से चिड़ियाँ जा चुकी होती हैं। शाखाएँ नीरवता से लदी होती हैं। आकाश में धुँआ नहीं दिखाई देता। तब लगता है कि दुनिया कोई जादुई मिट्टी का ढेला है। इस पर मैंने इतने सिगार बनाये और फूँक डाले फिर भी धुएं का निशान बाकी न रहा। मैं जो रोज़ करता हूँ वह कहां चला जाता है?
मैं एक बार किसी राह बढ़ जाता हूँ तो फिर बहुत दूर तक चलता रहता हूँ। अपने आपको रोक लेना या मोड़ लाना असम्भव हो जाता है। मैं दुनिया में सिगार बनाते आदमी को इस तरह अधिक नहीं सोचना चाहता कि हमारे उगते हुए दिन सिगार हैं और उनको फूंक देना, एक दिवस का ख़त्म हो जाना है। दर्शन की पहली कक्षा के बच्चे की तरह उलझना मुझे उदास करता है। मैं सोचता हूँ कि अगर सिगार बनाने और फूंकने को ही ज़िन्दगी कहते हैं तो इस के साथ इतना सारा बोझ क्यों है? क्यों हम कल के लिये बेचैन और चिंतित रहते हैं। किसी रोज़ सिगार बनाने वाला आदमी भी नहीं होगा। उसके कुछ देर बाद आदमी की उपस्थिति अल्पावधि के लिए एक स्मृति में ढल जाएगी। अंततः आकाश में जिस तरह सिगार का धुँआ नहीं खोजा जा सकता, उसी तरह सिगार बनाने वाला भी नहीं खोजा जा सकेगा।
मैं कुछ रोज़ पुराना सूख चुका सिगार उठा लेता हूँ। उसे जलाने के लिए दियासलाई खोजने लगता हूँ। तभी अचानक मुस्कुराने लगता हूँ।
ज़िन्दगी चाहे कुछ भी होगी। तुम्हारा प्यार दियासलाई है, जिसकी तपिश में मेरा एक दिन ख़ुशी से सिगार की तरह पूरा हो जाता है।