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किसी अनिच्छा की तरह

जैसे पानी में छपाक की आवाज़ से अक्सर डर जाता हूँ और फिर किसी को तैरते देखकर अविराम उसे देखता रहता हूँ।
दोपहर को झड़ते
धूप के फाहे
फूल हुए जाते थे।
ये ऐतबार करने की
बात न थी
मगर बात तो यही थी।
हर बार अचम्भे के पास शब्द नहीं होते। केवल एक विस्मित दृष्टि होती है। कभी-कभी अचम्भे के बाद उड़ते पंछियों के शोर से आकाश भर उठता है।
सूने मकान की तरह जीवन, समय को बीतते हुए देखता खड़ा रहता है। खिड़कियों और खुले आलों से हवा बिन बोले बहती रहती है, उसी तरह समय गुज़रता है। एक ठहराव किसी अनिच्छा की तरह स्थायी घर लेता है। जीवन की अलमारियों की दराज़ों से चाहना गुम हो चुकी होती है।
कभी विस्मय का अंकुरण हो जाता है।
इसलिए कि ठहरा हुआ कुछ भी नहीं होता लेकिन हमेशा लगता है कि सब कुछ ठहर गया है। एक ऊब है, जिसने स्थायी घर कर लिया है। रंग घुलते जा रहे हैं मगर नया रंग नहीं दिखता। दोपहर में कोई छींटा गिरता है तब महसूस होता है कि ठहरा हुआ कुछ न था। एक निश्चित गति से सब बदल रहा था।
अवसाद, निराशा, हताशा की सघन स्याही छंट रही होती है मगर समझ नहीं आता। असल में जीवन एक शिकारी है। वो घात लगाए किसी आड़ में हमारा इंतज़ार करता है। अचानक सामने आकर चौंका देता है।

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