आंखों के आगे एक स्याह पर्दा खिंच जाता। इसके क्षणभर बाद रोशनी की लकीरें उग आती। ऐसा होना बहुत जादुई था। आंखों को सबकुछ साफ दिखने लगे, उससे पहले मैं आंखें बंद कर लेता था।
बंद आंखों में मुझे पत्थर पर नक्काशी से बनाई गई जाली से छनकर आती रोशनी दिखती थी। दरीचे के भीतर कोई बैठा दिखता था। उस स्याह परछाई पर जहां रोशनी गिरती वह देखकर लगता कि यहां कोई बैठा है।
उसका होना ऐसा होता कि जैसे अंधेरे की अनेक पतली बीम बदन के पार निकल रही है। परछाई कोई ऐसा आदमी या औरत है, जिसके बदन में अनेक सुराख हैं। अगर उनमें से किसी भी एक सुराख से भीतर जाय जाए तो सम्भव है, वहां अनेक रास्ते हैं।
मैं उसके क़रीब जाने को बढ़ता हूँ तो हर कदम पर उसका आकार बदलता जाता है। रोशनी में चमकते बदन में स्याही के सुराख अपनी जगह बदलने लगते हैं मगर उसे कुछ नहीं होता। वह परछाई स्तब्ध कर देने जितनी स्थिर रहती है। उसे इतना स्थिर जानकर मैं सहमने लगता हूँ।
एक दीवार का सहारा लेकर खड़ा होता हूँ और सोचता हूँ कि उसके बदन को कौन जाहिर कर रहा है। स्याही या रोशनी? अगर केवल स्याही होती या केवल रोशनी होती तो क्या मैं उसे देख सकता था। शायद नहीं। इसलिए कि दो के बिना एक को ठीक महसूस नहीं किया जा सकता। प्रेम-घृणा, सहवास-बिछोह, भला-बुरा और इसी तरह अनगिनत अनुभूतियाँ किसी एक के होने पर ठीक समझी नहीं जा सकती।
दुख भी ऐसे ही थे। अगर सुख की कल्पना न की होती तो वे मेरे अपरिहार्य हिस्से की तरह साथ चलते और वे अजीब या बुरे नहीं कहे जाते। नित नए किन्तु एक से दुख मिलते रहें तो भी आदमी चलता रहता है। कभी किसी हादसे की तरह कोई सुख मिल जाये तो वही आदमी जो दुःखों का अभ्यस्त होने से अधिक दुःखों से एकमेव था, सुख देखकर रो पड़ता है।
कभी सुख न मिले तो दुःख उतने दुःखी नहीं करते।
सुख से औचक परिचय मुझे अतीत के दुखों तक ले जाता है। मैंने सुख को अक्सर छलिया पाया है। उसके पास अनेक भेष होते हैं। भीतर से वह एक कड़ा दुःख होता है। इस तरह का अनुभव सुखों के प्रति आशंकित कर देता है।
वह जो जालीदार रोशनी के पास बैठा हुआ दिखता है, वह मैं ही होता हूँ। अक्सर अपने पास नहीं जाना चाहता कि कौन सीले दुःखों और भुरभुरे सुखों के पास बैठ कर अपना मन भिगोये। कौन अपनी आंखें उड़ती बारीक धूल में खुली रखे।
मगर जालीदार दरीचे मुझे बेहद लुभाते हैं। मैं उन्हीं दरीचों में बैठे रहना चाहता हूँ।