कहने की कला

हेलेन केलर की एक कहानी ‘द फ़्रोस्ट किंग’ अंध विद्यालय की पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसके बाद एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने इसे प्रकाशित किया। पाठकों का इसकी ओर ध्यान गया तो मालूम हुआ, ये कहानी मारग्रेट कैनबी की कहानी ‘फ़्रोस्ट फैरीज़’ से मिलती जुलती थी। हेलेन केलर की उम्र ग्यारह बरस थी। वे देखने में असमर्थ थी। मिस सुल्लीवन उनको प्रकृति के बारे में बताती थी। सुल्लीवन की भाषा और प्रस्तुतीकरण में अपने पढे हुए के प्रभाव रहे होंगे। लेकिन उन सुनी गई बातों या जिस भी तरह प्रकृति को समझा गया था, का असर लेखन में आया। लेकिन उस कहानी में अन्य रचना से समानता थी।

साहित्यिक चोरी के बेहिसाब क़िस्से हैं।

इनमें से अधिकतर पार्टनर, मित्र और सहकर्मियों के हैं। लेखकीय स्वभाव के दो व्यक्तियों के बीच हुई चर्चा, डायरी का आदान प्रदान और हस्तलिखित स्क्रिप्ट का थोड़े फेरबदल के साथ अपने नाम से प्रकाशन का सिलसिला अनवरत है। समाचार पत्रों में प्रकाशित रिपोर्ताज़ को उपन्यास के रूप में लिखकर प्रकाशित करवा लिए, शोध ग्रन्थों को कथा में रूपायित कर रचना के वास्तविक लेखक बन बैठे, फ़ीचर से यथावत भाषा और सामग्री चुरा के रचना को मौलिकता का आवरण पहना दिया गया। ऐसी साहित्यिक चोरियों के बारें में आप खोज करने बैठेंगे एक उम्र गुज़र जाएगी।

डॉन ब्राउन के नाम से साहित्य रसिक परिचित हैं। द विंसी कोड के लिए उन पर मुकदमे चले हैं। नोबल पुरस्कार प्राप्त बॉब डिलेन पर चोरी का आरोप लगा। उनके पास अपनी सफाई देने के लिए कोई वक्तव्य नहीं था। इसी तरह अंतर्देशीय साहित्यिक चोरियाँ बेहिसाब हैं। लेखन संसार में अपनी पहली कृति लाने वाले भी बहुत सारे लेखक चोरी में पकड़े गए हैं।

हमारे देश के उपन्यास सम्राट के किसी उपन्यास में किसी अन्य लेखक की रचना के यथावत उपयोग के बारे में एक लेख बीसियों बरस पहले पढ़ा था। ये पंक्ति लिखना अपने लिए किसी आफत को बुलाने से कम नहीं है कि ये लेख जहां प्रकाशित हुआ था, वह प्रति मेरे पास सुरक्षित नहीं है। मैं इसे खोजने कहाँ जाऊंगा। मेरी स्मृति अब लगभग जवाब दे चुकी है। मैं साहित्य की मुख्यधारा का व्यक्ति नहीं हूँ कि मंचों से उद्धरण देने के लिए सामग्री को सहेजता रहूँ। मैं किसी के साथ बकवास भी नहीं करना चाहता मगर ऐसा मैंने पढ़ा था। इस याद से कैसे बचा जा सकता है।

वस्तुतः किसी अन्य के शब्दों को अपना बताना जालसाज़ी है। इससे बढ़कर किसी अन्य की रचनात्मक अभिव्यक्ति को बिना उद्धरित किए अपने नाम से प्रस्तुत करना अपराध माना गया है। इसमें कुछ भी इधर उधर या ऊपर नीचे करके अभी तक किसी को क्षमा नहीं किया गया है।

सभी साहित्यिक चोरियाँ इरादतन नहीं की गई हैं, मैं इस बात पर भरोसा करता हूँ। लेकिन जब लेखक पूर्व की रचना को पढ़कर सफाई में ये कहता है कि ये मेरा ओरिजनल वर्क है, तब मैं मान लेता हूँ कि ये व्यक्ति मन से सरल और ईमानदार नहीं है। ये अपनी कथित छवि के लिए उत्तर दे रहा है। वस्तुतः हमारी छवि शून्य होती है। हम किसी गलतफ़हमी में जीते हैं कि हम कुछ हैं। हमने कुछ रचा है। हमने साहित्य को कुछ समृद्ध किया है। ऐसे व्यक्ति की आत्ममुग्धता दूसरों के लिए विषाक्त होती है।

मैं बहुत अधिक समय से साहित्य में सक्रिय नहीं हूँ। असल में लिखकर मुक्ति पाने की कामना में लिखा हुआ जब भी प्रकाशित होता है, उसे मेरी एक नियोजित रचना मान लिया जाता है। जबकि किसी कहानी संग्रह, उपन्यास और कविता संग्रह के लिए जो अनुशासित कार्य किया जाना चाहिए, वह मैंने कभी नहीं किया। 

एक बार एक आलोचक मिल गए। मुझसे मेरी कहानियों के बारे में बात करने लगे। फिर कहा अपनी किताब भेजिएगा। मैंने कहा वे बेहद कच्ची रचनाएँ हैं, आप नाहक दुखी होंगे। इस पर वे उखड़ गए। ‘कच्ची रचनाएँ छ्पवाते क्यों हैं?’ इस एक बात से आप समझ सकते हैं कि अहंकार ने मनुष्यता को अपने तलवे के नीचे दबा रखा है। हालांकि मैं किसी कि गरज नहीं करता। मुझे कोई भय इसलिए नहीं है कि अगर साहित्य संसार आपका है तो आप रखो। बस।

देश भर में होने वाले प्रतिष्ठित साहित्यिक आयोजनों के मंचों पर ऐसे लेखक बैठे रहते हैं, जिनकी रचना का आधार एक अच्छा पाठक जानता है। कथित सेलेब्रिटी लेखकों का लेखन किसी से छुपा हुआ नहीं है। मैंने बहुत बरस पहले उनको पढ़ा तो पाया कि इनके पास लिखने के लिए भाषा का सामान्य ज्ञान तक नहीं है। ये हिन्दी ठीक नहीं लिख पाते हैं। व्याकरण की सूक्ष्मता को छोड़िए एक सरल वाक्य लिखना नहीं आता है। अब वे बड़ी फैन फोलोविंग वाले लेखक हैं।

फ़ैन फोलोविंग से मैं सहमति रखता हूँ। कि जिस व्यक्ति की जितनी समझ है, उतनी ही समझ वाला उसका आदर्श होगा। इस बारे में बात करना व्यर्थ है कि समाज का बड़ा तबका गंभीर लेखन, सिनेमा, संगीत और अन्य कलाओं से वास्ता पड़ने पर उलझा हुआ महसूस करता है। सच भी है कि दिन भर के श्रम और परिवार की चिंता के बाद किसके पास ऐसा मन बचता है कि सामाजिक संरचना के भीतर की प्रवृतियों और बदलाव पर ध्यान दे। उसे कल सुबह फिर से एक असाध्य कार्य पर जाना है। इसलिए वह ऐसी रचना चाहता है, जिसे बौद्धिक वर्ग ओछी, सतही और हल्की रचना समझता है। आज के सभी सेलेब्रिटी इसी वर्ग के हैं। आपको कोई अफसोस है तो अपना वर्ग बदलिए या फिर अपनी चेतना को समृद्ध कीजिये।

सुपरिचित और प्रसिद्ध उपन्यासों को कहानी में ढालकर, अङ्ग्रेज़ी में अनूदित वैश्विक कथाओं को हिन्दी में अपने नाम से प्रकाशित करवाने वाले बहुत सारे लेखक हैं। उनमें से अधिकतर, लेखक बनने के आकांक्षियों को लिखना सीखा रहे हैं। कार्यशालाओं में लेक्चर दे रहे हैं। उनके कारनामे जानकर भी कुछ नए लेखक उनको सीढ़ी समझ रहे हैं। ये जानना या समझना भी कोई गलत बात नहीं है। कि उनको भी वही चाहिए, जो आज के कथित आदर्श लेखक के पास है।

ये केवल लेखक की बात नहीं है। ये सिस्टम की बात है कि सिस्टम ऐसे लोगों से ही बना हुआ है। पिछले बरस गर्मी के दिनों में मैं अवकाश पर था। उसी समय राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष जी का मेरे पास फ़ोन आया। उन्होने कहा कि एक पुरस्कार के निर्णय हेतु आपको पुस्तकें भिजवा रहा हूँ। अपना पता दीजिये। मैंने कहा- "मैं क्या कोई साहित्य का समझदार अनुभवी और गुणी व्यक्ति हूँ? मैं साहित्यकारों की संगत से भी दूर रहता हूँ। आप किसी विद्वान को भेजिये।" इस बात को उन्होने नहीं माना और किताबें भेज दी। मैंने अवकाश के दिनों में सात किताबें पढ़ीं। अपना निर्णय भेज दिया। इसके बाद निर्णय किसी और का निकला। न मुझे उन्होने पारिश्रमिक दिया, ना मेरी समझ पर भरोसा किया। हालांकि ये एक ओछी घटना भर है। इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि ऐसी ओछी घटनाओं से ही हिंदी का महान साहित्य संसार बनता है।

मैं पढ़ता हूँ। पढ़ना आफत है। रचनाओं में कथानक की पुनरावृति तो आम बात है ही किंतु यथावत अपनी भाषा में कॉपी कर लेना भी आम बात है। इन्हें पढ़कर अफसोस होता है। लिखना चाहते हैं तो अभ्यास करते रहिए, चोरी चकारी मत कीजिए। फिर मैं खुद से कहता हूँ कि क्या मैं कोई चौकीदार हूँ। अगर मैं चौकीदार हूँ तो मेरा वेतन तय कर दिया जाए। मैं कथाओं के लिए कुछ लिखूँ।

मैं आपसे एक बात कहना चाहता हूँ। इन सब बातों से एक बात समझिए कि ये संसार ऐसा ही है। यहाँ यही चलता है। अपना दिमाग मत खराब कीजिये। जो अच्छा लगे उसे आगे पढ़िये बाकी को कूड़ेदान में फेंकिए। पाठक के लिए इससे अधिक सरल सुख का रास्ता नहीं है।

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