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मैं माओवादी नहीं हूँ

गरमियां फिर से लौट आई है दो दशक पहले ये दिन मौसम की तपन के नहीं हुआ करते थे. सबसे बड़े दिन के इंतजार में रातें सड़कों को नापने और हलवाईयों के बड़े कडाह में उबल रहे दूध को पीने की हुआ करती थी. वे कड़ाह इतने चपटे होते थे कि मुझे हमेशा लोमड़ी की दावत याद आ जाती थी, जिसमे सारस एक चपटी थाली में रखी दावत को उड़ा नहीं सका था. रात की मदहोश कर देने वाली ठंडक में सारा शहर खाना खाने के बाद दूध या पान की तलब से खिंचा हुआ चोराहों पर चला आया करता था.

जिस तेजी से सब चीजें बदली है. उसी तरह फूलों के मुरझाने और रेत के तपने का कोई तय समय नहीं रहा है. बढ़ती हुई गरमी में मस्तिष्क का रासायनिक संतुलन गड़बड़ होने से जो दो तीन ख़याल मेरे को घेरे रहते हैं, वे बहुत राष्ट्र विरोधी है. कल रात को पहले एक ख़याल आया था कि आईस बार जैसा मेरा भी अपना एक बार हो. उसमे बैठने के लिए विशेष वस्त्र धारण करने पड़ें जो तीन चार डिग्री तापमान को बर्दाश्त करने के लिए उपयुक्त हों. जहाँ बरफ के प्यालों में दम ठंडी शराब रखी हों जो गले में एक आरी की तरह उतरे. जब ये सोच रहा था तब रात के आठ बजे थे और घर की छत पर तापमान था बयालीस डिग्री यानि दिन के उच्चतम स्तर से चार डिग्री कम तो ऐसे में शराब के लिए ही छत पर बैठा जा सकता है क्योंकि इस गरमी में चाँद तारे अपना आकर्षण खो चुके होते हैं. अपना निजी आईस बार होना एक राष्ट्रद्रोही ख़याल है क्योंकि भूखे और तंगहाल जीवन यापन करने वाली चालीस फीसद आबादी के विकसित होने से पूर्व ऐसा ख़याल रखना सामंतवाद, पूंजीवाद और राजशाही का प्रतीक है.

ख़यालों की इस दौड़ में दूसरा ख़याल आया कि अस्सी के दशक में एक साल पड़ी भयानक गरमी ने जैसलमेर में तेल गैस खोज रहे विदेशी गोरी चमड़ी वालों को हलकान कर दिया, उनमे से एक तो ए सी के आगे लेटा - लेटा ही दुनिया को छोड़ गया. उसकी बची पार्थिव देह को देख कर उसके सखा थार के इस मरुस्थल को छोड़ गए थे. इस बार की गरमी भी कुछ ख़ास होगी, अभी मई और जून जिसे कहते हैं उनका आना बाकी है , मैं चाहता हूँ कि गजब की पड़े सब रिकार्ड तोड़ दे. ये बड़ी गरमी का ख़याल इसलिए है कि केयर्न इण्डिया ने भारत सरकार को अधिक हिस्सेदारी देने से मना कर दिया है. भारत सरकार ने ओ ऍन जी सी को भागीदार बनने के बहुतेरे प्रयास किये मगर इस मिट्टी में दबे तेल पर अब सिर्फ ब्रितानिया कंपनी का हक है. मिडिया खुश है बड़ी खबरें छापता है कि देश आत्मनिर्भर हो गया है तेल के मसले में, कोई पूछो तो सही कि दस डॉलर लागत में उत्पादित होने वाले क्रूड के अंतरराष्ट्रीय दाम हैं अस्सी डॉलर, फिर हमारा ही तेल हमें किस भाव से मिलेगा ? और लाईट स्वीट क्रूड के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं. देश के तेल का बाईस फीसद हिस्सा यहाँ से निकलेगा मगर हमें क्या मिलेगा ?

हमें मिलेगा बस्तर के आदिवासियों की तरह अपने ही देश से 'देश- निकाला. हमारी ज़मीन इस बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए सरकार ने छीन ली है. सदियों से जिस ज़मीन पर जैसे कुदरत ने रखा वैसे रहने के बाद, अब अपने बहुमूल्य पेड़ और झाड़ियों को खोते जा रहे हैं. ज़िन्दगी में नई चीजें आती जा रही है डामर की सड़कें, आग उगलते बेरल पोईन्ट्स, भारी भरकम वाहनों का प्रदूषण, पचासों होटल्स के सैंकड़ों कमरों में लगे दो - दो सौ ए सी से निकलती गरमी, सांस्कृतिक प्रदूषण और पैसे की चकाचौंध में पगलाए हुए किसानों की राह से भटकी हुई नयी पीढी. हजारों परिवारों की ज़मीन छिनी तो मुआवजा मिला लाखों और करोड़ों में, इससे समाज में एक बड़ी आर्थिक खाई बनी. अब इन बेघर हुए परिवारों को सौ किलोमीटर के दायरे में ज़मीन नहीं मिल रही यानि पैसे से इनकी जड़ें खोद दी गयी है.

जाने दो आगे कहना ठीक नहीं है, अरुंधती का नाम बड़ा है उसे बचाने कई आ जाएंगे. मुझे कह दिया गया कि मैं माओवादियों की तरह बोल रहा हूँ तो मेरा इतना सामर्थ्य नहीं है कि धन्ना सेठों के लिए बनी जेलों में अपने लिए एक पव्वे का इंतजाम करवा सकूँ.

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