इस रेगिस्तान में जन्मे धोधे खां की अंतर्राष्ट्रीय पहचान है. वे एक बहुत दुबले पतले और पांच वक़्त के नमाजी इंसान है. उनके पास जो संपत्ति है. वह एक झोले में समा जाती है. जो नहीं समा पाता वह है बकरियों का रेवड़ और कुछ किले ज़मीन. उन्होंने राजीव गाँधी की शादी में अलगोजा के स्वर बिखेरे थे. उनका मानना है कि इस संगीत को सुन कर इंदिरा गाँधी प्रसन्न हो गई थी. उन्होंने अपने हाथ से कुछ सौगात भी दी थी. भले ही अलगोजा जैसा वाद्य हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में शहनाई जितना उचित सम्मान न पा सका हो लेकिन उन्हें फ़ख्र है कि दिल्ली एशियाड का आगाज़ अलगोजा के स्वर से ही हुआ था.
मैंने जाने कितने ही घंटे उनके अलगोजा को सुनते हुए बियाते हैं. वे मेरी ज़िन्दगी के सबसे सुकून भरे पल थे. वह ख़ास कलाकार इतना सहज है कि रिकार्डिंग स्टूडियो और बबूल के पेड़ की छाँव में फर्क नहीं करता. इसीलिए मैं उसका मुरीद भी हूँ. मैंने बहुत नहीं तो कुछ नामी कलाकारों के पास बैठने का अवसर पाया है लेकिन इस सादगी को वहां नहीं पा सका. धोधे खां ने दुनिया के पचास से अधिक देश देखे होंगे और वहां के लोगों का प्यार पाया होगा. उनकी गहरी आँखें हमेशा उस अदृश्य सर्व शक्तिमान के रोमांच से भरी रहती है.
धोधे खां बातूनी है या नहीं कह नहीं सकता मगर मैंने उनके साथ लगातार तीन - तीन घंटे तक कई बार परिवार, कला और कला से जुड़े अनुभवों और समाज के बारे में बातें की है. दुनिया के सबसे बड़े रेडियो नेटवर्क आकाशवाणी के राष्ट्रीय कार्यक्रम संस्कृति भारती के लिए उन पर आधारित एक लघु रूपक भी बनाया था. इस कार्यक्रम के निर्माण से पहले भी कई बार मैं उनके गाँव में बकरियों के रेवड़ के बीच बैठ कर अलगोजा सुनता रहा और वे हर बार आल्हादित होकर, हर एक रचना के बाद अपने रचयिता ईश्वर का आभार व्यक्त करना नहीं भूलते.
धोधे खां से अलग होकर मैं शाम होते ही कुछ और कलाकारों के साथ बैठ जाता तो अगले दिन वे मुझे अपने बच्चे की तरह समझाते "अल्लाह ताला ने हमें ये शरीर दुनिया की बेहतरी के लिए दिया है, और आप साहब इसको शराब से ख़राब कर रहे हैं, क्या जवाब दोगे...?" मेरा ये बेटा... ऐसा कहते हुए वे अपने मंझले बेटे की और देखेते हुए कहते हैं "इसने बीड़ी पीनी शुरू की है, मुझ से छुप कर पीता है ... अभी से सांस फूलती है... मूजिक की बजाई एक दिन ख़त्म हो जाएगी. इसकी सांस फूल जाती है और मेरे को देखो पैंसठ साल की उम्र में राग प्रभाती को तीन बार बजा लेता हूँ..."
खैर धोधे खां साहब को याद करने का कोई इरादा नहीं था. वह तो कल रात को बरसात की हल्की फुहारें लगातार पड़ रही थी.बच्चे खाना खा के सो चुके थे और वायदे के हिसाब से पत्नी को भी मेरा इंतजार नहीं था तो मैं छत पर बैठ कर कोई सात आठ दिन बाद शराब पी रहा था. दिन को दो तीन मित्रों के फोन आये वे सब बड़े ही व्यथित थे कि विभूति नारायण राय जैसे आदमी ने कैसा स्टेटमेंट दिया है. उन्होंने स्त्री लेखिकाओं को छिनाल कहा है. उन्होंने एक समूह के लिए आपत्तिजनक शब्द का प्रयोग किया है. ऐसे ही या इसी अर्थ के उनके सवाल थे तो मुझे धोधे खां की याद आ गई.
धोधे खां की याद इसलिए कि वे हर बात में अपने कान पकड़ते हुए अल्लाह तौबा का उच्चारण करने की आदत रखते हैं दूसरा ये कि उनकी बकरियां अभी तक मौका मिलते ही अलगोजा को चबाने को आतुर रहती है. इसलिए भी कि वे सब एक सुर में मिमियाती हैं और इसलिए भी कि उन्होंने बिना साक्षात्कार पढ़े, मैं - मैं की जुगलबंदी की है. बकरियों, विभूति जी ने भले ही इशारे में कहा किन्तु उनका इशारा साफ़ है. वे किसी एक महिला लेखिका की बात कर रहे है. जिनकी आत्म कथा को पढ़ने से लगता है कि शीर्षक 'कितने बिस्तरों पर कितनी बार' होना चाहिए था ? मैं नाम लिखूंगा तो गुड़िया रूठ जाएगी. वे एक ख़ास रस्ते पर चलने वाली होड़ को बेहतर नहीं मानते, बस इतनी सी बात है. आपको लगता है कि वे पूरी बिरादरी की बात कर रहे हैं तो खुद को टटोल कर देखिये कहीं आप भी उसी पंक्ति में नहीं हैं. असल हल्ला तो कान में बिना बाली डाले हुए अमर - बकरे कर रहे हैं.
मैं जिन लेखिकाओं को जानता हूँ. वे भद्र और सुसंस्कृत महिलाएं हैं. भले ही उनके नाम बड़े नहीं है मगर मेरी नज़र में उनकी लेखनी बहुत बड़ी है और उनके लिए मेरा सम्मान भी इसलिए है कि वे धोधे खां की अलगोजा चबाने को आतुर बकरियां नहीं हैं. मेरी दुआ है कि वे साहित्यिक आकाश की सब ऊंचाइयां पार कर लें.
मैंने जाने कितने ही घंटे उनके अलगोजा को सुनते हुए बियाते हैं. वे मेरी ज़िन्दगी के सबसे सुकून भरे पल थे. वह ख़ास कलाकार इतना सहज है कि रिकार्डिंग स्टूडियो और बबूल के पेड़ की छाँव में फर्क नहीं करता. इसीलिए मैं उसका मुरीद भी हूँ. मैंने बहुत नहीं तो कुछ नामी कलाकारों के पास बैठने का अवसर पाया है लेकिन इस सादगी को वहां नहीं पा सका. धोधे खां ने दुनिया के पचास से अधिक देश देखे होंगे और वहां के लोगों का प्यार पाया होगा. उनकी गहरी आँखें हमेशा उस अदृश्य सर्व शक्तिमान के रोमांच से भरी रहती है.
धोधे खां बातूनी है या नहीं कह नहीं सकता मगर मैंने उनके साथ लगातार तीन - तीन घंटे तक कई बार परिवार, कला और कला से जुड़े अनुभवों और समाज के बारे में बातें की है. दुनिया के सबसे बड़े रेडियो नेटवर्क आकाशवाणी के राष्ट्रीय कार्यक्रम संस्कृति भारती के लिए उन पर आधारित एक लघु रूपक भी बनाया था. इस कार्यक्रम के निर्माण से पहले भी कई बार मैं उनके गाँव में बकरियों के रेवड़ के बीच बैठ कर अलगोजा सुनता रहा और वे हर बार आल्हादित होकर, हर एक रचना के बाद अपने रचयिता ईश्वर का आभार व्यक्त करना नहीं भूलते.
धोधे खां से अलग होकर मैं शाम होते ही कुछ और कलाकारों के साथ बैठ जाता तो अगले दिन वे मुझे अपने बच्चे की तरह समझाते "अल्लाह ताला ने हमें ये शरीर दुनिया की बेहतरी के लिए दिया है, और आप साहब इसको शराब से ख़राब कर रहे हैं, क्या जवाब दोगे...?" मेरा ये बेटा... ऐसा कहते हुए वे अपने मंझले बेटे की और देखेते हुए कहते हैं "इसने बीड़ी पीनी शुरू की है, मुझ से छुप कर पीता है ... अभी से सांस फूलती है... मूजिक की बजाई एक दिन ख़त्म हो जाएगी. इसकी सांस फूल जाती है और मेरे को देखो पैंसठ साल की उम्र में राग प्रभाती को तीन बार बजा लेता हूँ..."
खैर धोधे खां साहब को याद करने का कोई इरादा नहीं था. वह तो कल रात को बरसात की हल्की फुहारें लगातार पड़ रही थी.बच्चे खाना खा के सो चुके थे और वायदे के हिसाब से पत्नी को भी मेरा इंतजार नहीं था तो मैं छत पर बैठ कर कोई सात आठ दिन बाद शराब पी रहा था. दिन को दो तीन मित्रों के फोन आये वे सब बड़े ही व्यथित थे कि विभूति नारायण राय जैसे आदमी ने कैसा स्टेटमेंट दिया है. उन्होंने स्त्री लेखिकाओं को छिनाल कहा है. उन्होंने एक समूह के लिए आपत्तिजनक शब्द का प्रयोग किया है. ऐसे ही या इसी अर्थ के उनके सवाल थे तो मुझे धोधे खां की याद आ गई.
धोधे खां की याद इसलिए कि वे हर बात में अपने कान पकड़ते हुए अल्लाह तौबा का उच्चारण करने की आदत रखते हैं दूसरा ये कि उनकी बकरियां अभी तक मौका मिलते ही अलगोजा को चबाने को आतुर रहती है. इसलिए भी कि वे सब एक सुर में मिमियाती हैं और इसलिए भी कि उन्होंने बिना साक्षात्कार पढ़े, मैं - मैं की जुगलबंदी की है. बकरियों, विभूति जी ने भले ही इशारे में कहा किन्तु उनका इशारा साफ़ है. वे किसी एक महिला लेखिका की बात कर रहे है. जिनकी आत्म कथा को पढ़ने से लगता है कि शीर्षक 'कितने बिस्तरों पर कितनी बार' होना चाहिए था ? मैं नाम लिखूंगा तो गुड़िया रूठ जाएगी. वे एक ख़ास रस्ते पर चलने वाली होड़ को बेहतर नहीं मानते, बस इतनी सी बात है. आपको लगता है कि वे पूरी बिरादरी की बात कर रहे हैं तो खुद को टटोल कर देखिये कहीं आप भी उसी पंक्ति में नहीं हैं. असल हल्ला तो कान में बिना बाली डाले हुए अमर - बकरे कर रहे हैं.
मैं जिन लेखिकाओं को जानता हूँ. वे भद्र और सुसंस्कृत महिलाएं हैं. भले ही उनके नाम बड़े नहीं है मगर मेरी नज़र में उनकी लेखनी बहुत बड़ी है और उनके लिए मेरा सम्मान भी इसलिए है कि वे धोधे खां की अलगोजा चबाने को आतुर बकरियां नहीं हैं. मेरी दुआ है कि वे साहित्यिक आकाश की सब ऊंचाइयां पार कर लें.