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हर शाम उसका यूं चले आना

अभी बाहर मौसम में सीलन है. कपड़े छू लें तो अचरज होता है कि किसने इतना पानी हवा में घोल दिया है. यहाँ बारिशें इस तरह आती थी जैसे खोया हुआ महबूब बरसों बाद सडक के उस पार दिख जाये. सात साल में एक बार यानि कुदरत का हाल भी कमबख्त दिल सा ही था और दिन तो बिस्तर पर रह गये टूटी हुई चूड़ी के टुकड़े से थे. दूर तक सूना आसमान या फिर काँटों से भरे सूखे पेड़ खड़े होते. जिन सालों में बारिशें नहीं थी तब दुःख भी ज्यादा दिन तक हरे नहीं रहते थे. सालों पहले की शामें अक्सर तन्हाई में दस्तक देती और मन के घिसे हुए ग्रामोफोन से निकली ध्वनियाँ अक्सर भ्रमित ही करती.

सोचने को चेहरे और बुनने को याद के कुछ धागे हैं. हाथ में लिए दिनों को फटकते हुए पाया कि शाम के इन लम्हों के सिवा पूरा दिन जाया हुआ. जब तक अपने भीतर लौटता हूँ, मेरा हमसाया दो पैग ले चुका होता है. अव्वल तो पहचानने से इंकार कर देता है और मंदिर के बाहर जूते रखने के खानों में करीने से रखे जूतों की तरह दुआ सलाम को रखता जाता है. पुरानी बची हुई शिनाख्त के सहारे मैं उसे कहता हूँ कि तुम को खुद नहीं पता कि तुम्हारे कितने चहरे हैं ? अभी जो मुस्कुराते हो, दम भर पहले यही सूरत उदास थी. ये किसके मुखोटे हैं ? वह नहीं सुनता. मैं उसे देखता रहता हूँ कि जब वह पी लेता है तो बड़ा सुंदर दिखता है. चुप होने लगता है. और ज्यादा चुप. एक ख़ामोशी मुखरित होती जान पड़ती है.

उसके पास कोई सलीका नहीं है. ज़िन्दगी की सब चीजें ओवरलेप हो गई हैं. वह जितने काम करना चाहता था, उसमें से उसे दो काम करने नहीं आये. एक तो प्यार और दूसरा कविता. ये लाजिम ही था क्यों कि कविता के लिए प्यार का होना जरुरी है. इन दो कामों के न होने से बचे हुए स्पेस को वह आला दर्जे की शराब से भरता जाता है. शराब पीने से एक अच्छा काम ये होता है कि दिमाग में घूम रही कहानियों से मुक्ति मिल जाती है. किसी के बेहद निकट होने की चाहना से उपजी हुई कहानियों से सिर्फ़ एकांत रचा जा सकता है. यह एकांत खुद के ही दो हिस्सों के बीच काल्पनिक सौन्दर्य व सहवास की इच्छाएं और उलझनें गढ़ता है. इसका हासिल है एक और पैग... और बेशर्मी से जवां होती रात.

पूरब की ओर खुलने वाली अलमारी में रखी विस्की कई शामों से उदास है. वह कल रात को जिन पी रहा था. मैंने पूछा कोई खास बात ? अपनी छोटी सी पहाड़ी लोगों जैसी आँखों को और ज्यादा मींचते हुए बोला "मुझे लगता है कि हम सबके भीतर एक रूह होती है." मैं उससे हर शाम कुछ खास किस्म की बातें करता हूँ. उनमें दो एक बातें कहानियों के बारे में होती है. रूह के बारे में कहे एक वाक्य के बाद वह चुप था लेकिन अचानक उसने कहा "मैं एक भेड़ हूँ, काले मुंह वाली भेड़. मुझे शराब की लत है और गोल घेरे की संरचना से नफ़रत है. इस बारे में नैतिकतावाद के प्रिय दार्शनिक ह्यूम से बात करना चाहती हूँ."

उसकी पनियल उदास आँखों में चमकती ख़ुशी के एक कतरे को देख कर मैं लौट आया. सीढियां उतरते समय जो टूटी फूटी आवाज़ मुझ तक आई उसका आशय था कि प्रेम करने के लिए उसके होठों को चूमने की जरुरत नहीं है. मुझसे कोई उत्तर न पाकर उसने जोर देते हुए कहा. क्या तुम भी मेरी तरह कासानोवा को नहीं जानते ?


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हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउ

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