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ऊपरी माले में टंगी झोली में अर्ज़ियाँ नहीं, कुछ अनगढ़ ख़्वाब रखे हैं

तुम कहां खोये रहते हो ?

मैं खिड़की के पल्ले को थामे हुए देखता हूँ कि नीली जींस और सफ़ेद शर्ट में खड़ा हुआ दुबला सा शख्स कहीं देखा हुआ है. कुनमुनी स्मृतियों की गंध में इसकी पहचान नहीं बनती मगर कुछ है जो अपनी ओर खींचता है. उसको आवाज़ देता हूँ तो लगता है कि खुद को बुला रहा हूँ. ऐसे बुलाना कितना मुश्किल है फिर भी बाहर झांकता हुआ कहता हूँ. तुम नीचे क्यों खड़े हो ? उपर आओ ना ! देखो कि ये किस याद का लम्हा हैं जो चुभता जाता है.

इस रास्ते कोई खुशबू नहीं आई. बस वक़्त था जो राख़ होकर बरसों से बाँहों पर जमता गया. लाल कत्थई रंग के चोकोर खानों वाला सोफे का मैटी कवर भी गर्द से भर गया है. दीवारों की सुनहरी रंगत और चिकने पत्थर की करीने से बनी सीढ़ियों पर चढ़ते हुए क्या वह फिर से बीच में बैठ कर सुस्ताने लगेगा, क्या उसे रेलवे अस्पताल के आगे खड़े इमली के पेड़ की हरी पत्तियां याद आयेगी, क्या वह घर बदल गए दोस्त के पुराने मकान के दरवाजे को आर्द्र उदासी के साथ देखने के दिनों को याद करेगा... मैं उसे कहां बैठने को कहूँगा ?

मेरे पास बैठेगा तो कहूँगा कि सुना है जन्नुतियों से ख़ुदा पूछता है, धरती पर सबसे अच्छा क्या था ? हालाँकि शराबियों को जन्नत नसीब नहीं होती पर उनकी अर्ज़ियाँ सुनी जाती है. हाजिरी के वक़्त देवदूत उसे देख कर मुस्कुरा रहे होते हैं और ख़ुदा की आँखों में शरारत भर आती है लेकिन मैं कहूँगा. मेरे मौला... एक आवाज़ थी जिसमें बहुत प्यार छुपा था.

वह
कुछ और नहीं पूछेगा सिर्फ मेरे शानों पर जमे जाया सालों की ओर देखेगा मगर मैं कहना चाहूँगा कि कोई जल्दी नहीं थी यहाँ आने की बस लगता था कि दिन रात टूट कर गिरते जाते थे. मौसम ने पुराने सालों की खुशबू को ड्रॉप कर दिया था और नए सौदे लिए आता था, आसमान पर पौछा मारने के बाद भी बीस की उम्र वाली वह रंगत नहीं देख पाता था यानि कुछ ख़त्म हुआ जाता था. ऐसे में खुद से कहा. होने दो, सहेजना, सकेरना नहीं है .. बस तैयार रहो, झाड़ लो जींस पर लगी धूल.

आह ! इस हैरत से देखो कि अब तो जान भी नहीं बची.

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