हर शाम ऐसी नहीं होती कि उसे भुलाया जा सके. उस दिन मौसम बेहतर था. वक़्त हुआ होगा कोई सात बजे का और गर्मी के दिन थे. शेख कम्प्यूटर्स के आगे दो कुर्सियों पर लड़कियां बैठी हुई थी. उन कुर्सियों पर अधपके कवि, कथाकार और नाट्यकर्मी मिल जाते थे. मैंने उनके साथ बेहतरीन शामें बितायी थी. हम यकीनन दुनिया की बेहतरी की बातें नहीं करते थे मगर मनुष्य के छोटे-मोटे, सुख- दुःख बातों का हिस्सा जरुर हुआ करते थे. उन दो लड़कियों के ठीक सामने की कुर्सी खींच कर बैठते हुए पाया कि आज दोस्तों की गैरहाजिरी है. वे दो लड़कियां छोटी और राज़ भरी बातें बाँट रही होंगी कि बातों के टुकड़े पकड़ कर मुस्कराने लगती और ऐसा लगता कि बात पूरी होने से पहले ही सुनने वाला समझ गया है. दोनों लड़कियों ने सलवार कुरते पहन रखे थे. उनके पांवों में स्पोर्ट्स शू थे. वे कुछ इस बेखयाली में बैठी थी कि उनको देखते हुए लगता था. अब छुई-मुई लड़कियां बीते दिनों की बात है. मैं उनसे बात करने लगा. वे एकदम सपाट ज़ुबां वाली थी. ऐसी लड़कियां आपको चौंका देती हैं. वे छोटे और सलीके वाले जवाब दे रही थी. थोड़ी ही देर बाद मालूम हुआ कि वे पु...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]