काश कि उसने उठा ली होती
अपनी नज़रें, मेरी ज़िन्दगी की किताब से.
या फिर हुआ होता
एक अच्छा इरेजर,
मिटा लेते कोई चेहरा याद के हिसाब से.
होता कोई लोकल अनेस्थिसिया ईजाद
जो दर्द में देता आराम
जब मुसलसल हो रही हों,
उसे भुलाने की नाकाम, कोशिशें हज़ार.
काश सूरज कर लेता कुछ दिनों को वाइंड अप
और घर लौटते हुए हम, भूल जाते, उसका नाम.
या पड़े होते बियाबान में, तनहा पत्थर की तरह
या फिर हो जाते,
इतने मूढ़ कि समझ न सकते, बोले - सुने बिना.
कोई लुहार भी हुआ होता
जो जानता, काटना बेड़ियाँ अहसास की.
काश लिख सकते कि सब फ़ानी है,
काश सब रास्ते बनाये जा सकें फिर से
काश, वो हो जाये किसी खोयी हुई हवा का झोंका,
मैं अटक जाऊं कंटीली बाड़ में सूखे पत्ते की तरह.
काश, इतना सा हो जाये क्योंकि बेठिकाना, बेवजह आंसू ये रोना रात भर, है ज़िन्दगी तो इस ज़िन्दगी की मुझे गरज नहीं.
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