ये ट्राईटन मॉल के हॉयपर सिटी स्टोर के अधबीच का भाग था. मैं वस्तुओं की प्रदर्शनी में अपने लालच और जरुरत का तौल भाव कर रहा था. रौशनी के इस बाज़ार में चीज़ों के आवरण बेहद चुस्त और सम्मोहक थे. अचानक मेरे पीछे से एक नौजवान आवाज़ आई. " मैं, ओलिव आयल के बिना खाना नहीं खा सकता हूँ." मैंने मुड़ कर उस आदमी को देखा. गठीला बदन चुस्त जींस और गोल गले का टी शर्ट पहने हुए था. उसने ये बात अपने साथ चल रही, एक महिला से कही थी.
नौजवान की कही हुई इस बात पर अनेक तरह की प्रतिक्रियाएं की जा सकती थी. सबसे बेहतर प्रतिक्रिया होती कि इग्नोर कर दिया जाता लेकिन मेरे मन में पहला ख़याल आया कि इस आदमी को शाम का खाना भी मिलेगा या नहीं. अपने छोटे भाई की तरफ देखते हुए. मैंने कहा. "भाई शाम का खाना तय है?" भाई ने कहा कि हम अच्छे खाने की उम्मीद कर सकते हैं. मुझे ख़ुशी हुई कि अभी हम भ्रम में नहीं जी रहे हैं.
ओलिव आयल के बिना खाना न खा सकने वाले उस आदमी को अभी मालूम नहीं है कि कई बार खाना सामने रखा होता है मगर ज़िन्दगी उसे खाने की इजाज़त नहीं देती.
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रामनिवास बाग़, जयपुर शहर के बीच स्थित है. अलबर्ट हॉल, जिसे सेंट्रल म्यूजियम कहा जाता है और चिड़ियाघर को मिलाकर कोई पचहत्तर एकड़ में फैली यह ज़मीन सुकून की जगह है. शहर पर ट्रेफिक का दबाव इतना है कि इस बाग़ के बीच से यातायात निर्बाध चलता रहता है. दाना चुगते हुए कबूतरों के झुण्ड को उड़ा कर उनके बीच फोटो खिंचवाने की तवील परम्परा को आगे बढ़ा रहे लोगों को देखता हूँ. क्या सब लोग जानते हैं कि एक दिन कबूतर की तरह उड़ जाना है और कुछ सालों के लिए हमारी तस्वीर यादगार बन कर बची रहेगी.
मगर ऐसा नहीं है, ये सिर्फ़ रोज़मर्रा की उदास छतरी को भेद कर खुले आसमान में उड़ जाने की चाह है.
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बाग़ से बाहर जाते हुए रास्ते के दायीं तरफ वाली फुटपाथ के पास ट्राई सायकिल पर एक विकलांग गुटखा और तम्बाकू मिश्रित उत्पाद बेच रहा था. उसकी मुड़ी हुई लकवाग्रस्त टांगों से बेख़बर और शातिराना मुस्कान से रूबरू दो आदमी अचरज भरे चेहरे से जुगलबंदी कर रहे थे. अचानक मेरी नज़र एक और आदमी पर पड़ी जिसने अपनी गोदी के बीच में एक पोलीथिन रखी थी. उसमें कुछ खाने की चीज़ें थी. उसने मुट्ठी भर कर उनको अपने मुंह में ऐसे रखा कि कोई चोरी का काम कर रहा हो.
हम सब ईमानदार हैं. दूसरों की चोरी पकड़ लेना चाहते हैं. मैंने भी पल भर किसी के इंतजार का ड्रामा किया ताकि देख सकूँ कि वह क्या खा रहा है. उस आदमी के पास खाने को सत्तू जैसा कुछ था. वह इस भोजन को सार्वजनिक स्थान पर पूर्ण निजता के साथ कर रहा था. उसके पास विलासिता का अहंकार नहीं था. उसके पास कमतर खाने की शर्म या फिर ज़िन्दगी की लाचारी को छुपा लेने का इरादा था.
दुआ कि जीवन भर सुख की रोटी नसीब होती रहे. खाने को भले ही कमतर चीज़ें नसीब हों मगर आदमी के पास भ्रम की दुनिया नहीं होनी चाहिए. याद आया कि किसी ट्रक पर लिखा था "ख़बर नहीं है पल की, बातें करता है कल की." हालाँकि ख़बर में ख के नीचे नुक्ता नहीं था. यूं भी हर एक ज़िन्दगी में कुछ न कुछ अधूरा होता ही है.
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[Image : Kabir, Tanya and Mahendra at Ramnivas garden, Jaipur.]