मैं उनींदा हूँ। मैं सपने में हूँ। मैं जागने से पहले के लम्हे की गिरफ़्त में हूँ। मैं जाने किधर हूँ। देखूँ तो पाता हूँ कि मैं अपने घर की छत पर बैठा हूँ। हवा में हल्की ठंड है। पहाड़ पर एक प्रार्थना की तरह प्रकाश विस्तार पा रहा है। मैं कहता हूँ, ओ प्रकाश, मुझ तक भी आओ। मेरे पास कुछ नहीं आता इसलिए एक नयी कामना करता हूँ। मुझे ज्यादा ठंडी हवा का स्पर्श चाहिए। मुझे आइस क्यूब चाहिए। मैं अपने भीतर की तनहाई को बर्फ के साथ जमा देना चाहता हूँ। मेरी तनहाई एक आग है। मेरी चाह है कि आग पानी में क़ैद हो जाए। कई रात पहले एक तारा टूटा। उसी रात मैंने उसे देखा। उसी वक़्त मैंने चाहा कि एक नाम भूल जाऊँ। किसी ने कुछ नहीं कहा भूलने या याद रखने के बारे में, इसलिए मैंने खुद से कहा कि इंतज़ार करो। एक दिन सबकी टूटने की बारी आती है। एक दिन सबके दरवाजे से झांक रही होती है महबूब की आँखें। उस एक आखिरी दिन के लिए, कई रातों पहले वाली तारा टूटने वाली रात को देखने के लिए, तुम रख देना अपनी आत्मा मेरी आँखों के सामने.... इस वक़्त तुम जाने कहाँ हो किस जगह रखे हैं तुम्हारे पाँव? मगर इस याद का किस्सा शुरू होता ...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]