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हसरतों का बाग़

कभी कहा न किसी से तेरे फसाने को न जाने कैसे खबर हो गयी ज़माने को। सिटी बस में यही ग़ज़ल बज रही थी। सवारियाँ इस सोच में डूबी थी कि डायवर्टेड रूट में किस जगह उतरा जाए तो अपने ठिकाने लग सकते हैं। हर कोई इसी कोशिश में है कि वह ठिकाने लग जाए। मेरे पास कोई काम न था। मैं छुट्टी लेकर राजधानी में घूम था और दिन की गर्मी सख्त थी। सिटी बस में कभी कभी हवा का झौंका आता लेकिन उसे अधिक ट्रेफ़िक कंट्रोल कर रही विशल की आवाज़ आती। शहर में बड़ा सियासी जलसा था। जलसे वाली जगह के बारे में मैंने पूछा कि यहाँ कितने लोग आ सकते हैं। मेरे पूछने का आशय था कि इस सभा स्थल की केपेसिटी कितनी है। जवाब मिला कि कोई तीन लाख के आस पास। विधानसभा का भवन जिस ओर मुंह किए खड़ा है उसी के आगे ये जगह है। अमरूदों का बाग़। खुला मैदान है। पहले यहाँ पुलिस का मुख्यालय बनना था लेकिन किन्हीं कारणों से इस जगह को खाली ही रहने दिया गया। मैं इस खाली जगह को देखकर खुश होता हूँ। खाली जगहें हमारी मत भिन्नता और असहमतियों के प्रदर्शन के लिए काम आ सकती है। अंबेडकर सर्कल से देखो तो विधान सभा के आगे कोने में दायें हाथ की तरफ एक छुपी हुए जगह है। यही अमरूदों का बाग़ है। मेरे ससुराल में एक अमरूद का पेड़ लगा हुआ है। वो पेड़ रहेगा कब तक ये नहीं मालूम मगर हमने बेसब्र होकर खूब कच्चे अमरूद खाये हैं। कच्चे अमरूद और पके अमरूद के खाने में सिवा इसके कोई अंतर नहीं है कि एक खट्टा लगता है मगर मुंह को पानी से भर देता है। दूसरा पका हुआ मीठा होता है और जल्दी खत्म हो जाता है। ऐसे ही लोग नए स्वाद के लिए उमड़ पड़े थे। जयपुर शहर की सड़कों पर भारी भीड़ थी। जिस तरह हमारी आबादी बढ़ी है उसके अनुपात में देखें तो सांख्यिकी का कोई जानकार इसे सामान्य भीड़ भी कह सकता है। लेकिन ये एक राजनैतिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जुटी हुई भीड़ थी। इसलिए समर्थन वाले अपने दोनों हाथ खड़े किए हुये थे और वे इसे दो दो लोगों के हाथ गिनवाना चाहते थे।

मैंने एक साहब से पूछा कि क्या आपने इससे पहले कभी इतनी भीड़ देखी है। उनका जवाब था कि अमरूदों का बाग़ में अलबत्ता इतना हुजूम कभी नहीं जुटा। हाँ मगर आरक्षण की माग को लेकर जब जाट एकजुट हुये थे तब ये जगह छोटी पड़ रही थी इसलिए उन्होने विध्याधर नगर के स्टेडियम में सभा की थी। यानी ये जयपुर की नहीं अमरूदों का बाग़ की अब तक की एक बड़ी सभा थी। जलसे में जो भाषण हुये उनमें देश का विकास किस तरह किया जाएगा इस पर बात नहीं हुई। एक ही बात हुई कि राज अक्षम लोगों के हाथ में है। नेतृत्व और नैतिकता का अभाव है। इसी जलसे के बाहर कुछ युवा काले झंडे लिए लिए हुये विरोध प्रदर्शन भी कर रहे थे। उनके विरोध को आयोजकों के कार्यकर्ताओं ने कठोर सबक सिखाया। सरे राह, बीच भीड़ के उनको इस कदर पीटा कि सारा विरोध नंगा हो गया, विरोध के कपड़े फट गए। मैं सोच रहा था कि विरोध करने की ये सज़ा कौन दे रहा है। उनके समर्थक जो नैतिकता का पाठ अभी अभी पढ़ा रहे हैं। सभा में खिल्ली उड़ाने की खूब बातों के बीच पसीना और गर्मी थी। लोकतन्त्र की खुशबू शायद इसी को कहते हैं कि जनता, शासन के दरवाजे पर खड़े होकर बदलाव की चुनौती दे रही है। असीम उत्साह से भरे हुये कार्यकर्ताओं ने इतने नारे लगाए कि जिनके नाम से नारे लग रहे थे वे खुद विचलित हो उठे। ये उन्माद अपूर्व था। केसरिया रंग के परचम और माथे पर वैसी ही पट्टियाँ बांधे हुये। गले में अपने प्रिय नेता के पोस्टर को पहने हुये। मैंने एक युवा से पूछा कि क्या लगता है? उसने कहा- इस बार ढाह लेंगे। मैं अगला सवाल निश्चित रूप से यही पूछता कि आप लोग 'ढाह' लेने के बाद क्या करोगे इसके बारे में कुछ बताते क्यों नहीं। लेकिन मैंने ये सवाल स्थगित ही रखा कि आज ही के दिन यहीं पर विरोध करने वालों की सरे राह किस तरह हजामत हुई थी। 

वापसी के वक़्त मैं जिस सिटी बस में बैठा था वह महल के आस पास पूरी खाली हो गयी। उसमें विध्यालय गणवेश में कुछ छात्राएं सवार थी। मेरे आगे बैठी हुई एक लड़की ने सफ़ेद रंग के पीटी शू पहन रखे थे। उन पर हल्की धूल जमा थी। दायें पैर के जूते पर लिखा था, अंजलि। अँग्रेजी में लिखे हुये उस नाम को पढ़ते ही मेरे मन में अपनी लिखी कहानी का स्मरण हो आया। मैंने सोचा कि क्या मैं इसके जूते की एक तस्वीर ले लूँ। अचानक मैं अपने ही इस खयाल से डर गया। सेलफोन से फोटो क्लिक करने की आवाज़ आते ही लड़की शायद नाराज़ हो जाती और उससे पूछ कर फोटो लेना होता तो मैं क्या कहता उससे? आसाराम जैसे कथित बापुओं ने हमसे ऐसे प्रिय सम्बोधन भी छीन लिए हैं जिन्हें हम अपनी बेटियों के लिए उपयोग में लेते आए हैं। मैं अंजली के नाम को पढ़ता हूँ। सिटी बस में कोई गीत नहीं बजता। हम चार लोग हैं जो बिना एक दूजे के सामने देखे आखिरी स्टॉप पर उतर जाते हैं। शाम को बेटे से फोन पर बात करता हूँ। उसने सायकिल चलना सीखा है। मैं कहता हूँ कैसा लग रहा है। वह कहता है सायकिल ढलान में अपने आप चलती रहती है, मुझे तो खूब मजे आ रहे हैं। उसकी बात सुनते ही मुझे खयाल आया की हर कोई ढलान में आते ही सायकिल की सीट को कब्ज़ाना चाहता है। अगले दिन सब अखबारों में एक खास वर्ग की महिलाओं के बड़े फोटो छपे होते हैं। वहीं कई लोग मिल कर कुछ लोगों को पीटते हुये दिखते हैं। मीडिया मेनेजमेंट है कि मीडिया किसी को बनाने के मुगालते में ये भूल जाता है कि वह कैसा रसायन बना रहा है। पंचतंत्र की नीति कथाएँ याद आ रही है। इसलिए मैं विष्णु शर्मा का आभार व्यक्त करते हुये चुप हो जाता हूँ।

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