सबकी पेशानी पर है प्रेम की थोड़ी सी राख़

दो दिन की डायरी के तीन टुकड़े। 

रेत के बीहड़ में लोहे के फंदे में फंसी एक टूटी हुई टांग के साथ असहनीय दर्द की मूर्छा लिए हुये तीन सामर्थ्यहीन टांगों से छटपटाता है हिरण। हिरण, जो कि एक प्रेम है। अर्धचेतना में डूबा अपने महबूब शिकारी की प्रतीक्षा में रत। मृत्यु और भोर के बीच एक निश्चेष्ट होड़। 

उसके होठों जितनी दूर और उतनी ही प्यासी, बुझती हुई हिरण के आँखों की रोशनी। इस तड़प के वक़्त बेखबर शिकारी सो रहा है जाने किस अंधेरे की छांव। हिरण के डूबते दिल की आवाज़ समा रही है धरती की पीठ में। वह तड़पता है फंदे में बेबस और लाचार। 

सबकी पेशानी पर है प्रेम के अतीत की थोड़ी सी राख़। 

मैं एक अघोरी हूँ। जो बैठा हुआ हुआ है छत पर और रेत उड़ उड़ कर गिर रही है सूखे प्याले में।

15 Sept 2013 8 PM

वक़्त में नमी रही होगी। दीवार के बीच कहीं एक पत्थर के आस पास से झड़ गया था सारा सौदा जिसके साथ रहा होगा वादा थाम कर रखने का। ऊपर खुला आसमान था लेकिन बाकी तीन तरफ खाली छूटी हुई लकीरों को किसी तत्व का नाम नहीं दिया जा सकता था। उस जगह को दरारें ही कहना एक मजबूरी थी। 

पत्थर मगर अटल था किसी नियम से बंधा हुआ। न उसे कोई हवा गिरा पाती थी। न उस तरफ से कोई दीवार चढ़ने की कोशिश करता था। जैसे किसी ने सुन लिया हो प्रेम का हाल और और उसे छोड़ दिया हो उसी के हाल पर। 

भरी पूरी दीवार पर एक तन्हा पत्थर कैसा दिखता है? 

जैसे कोई केसी जैसा आदमी शाम ढले छत पर बैठा शराब पी रहा हो। एकदम तन्हा। और कोई हवा, कोई नशा न गिरा पा रहा हो उसे।

* * *

15 Sept 2013 10.30 AM

कल रात औंधा पड़ा रहा प्याला, रेगिस्तान की हवा उलट भी न सकी उसमें क़ैद दोपहर उदासी। मैंने रात का या रात ने थाम रखा था मेरा हाथ और उस उदासी को खींच लाया हूँ इस सुबह तक। नीम की टहनियाँ झुक रही हैं दक्षिण से उत्तर की ओर आक के पत्ते उड़ने लगे हैं आहिस्ता। मैं वक़्त का मुंह देख रहा हूँ इस उम्मीद में कि वह जल्दी जल्दी पौंछे तुम्हारी चीया के आँसू, बेटे की हतप्रभ आँखें और तुम्हारी संगिनी के दिल में रख दे वेदना को पीने का सामर्थ्य। 

ओ रेगिस्तान की आँधी मिटा दो कल के दिवस का निशान कि हम यूं भी जानते हैं स्मृति से बुनना दुखों को। आई लव यू दीपक अरोड़ा। मैंने उस दिन सच कहा था कि प्यार है। सुबह सुबह रोना बड़ी मामूली चीज़ है तुम्हारे न होने के सामने...

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