वीकेंड के खत्म होने से कोई छः घंटे पहले उसका मेसेज़ आता। मैं अभी लौट कर आई हूँ। इस मेसेज़ में एक थकान प्रस्फुटित होती रहती थी। संभव है कि इस थकान को मैं अपने आप सोच लेता था। इसके बाद वह बताती कि कुछ नहीं बस हम दोनों सोये रहे। हाँ वह होता है बिलकुल पास। मगर मुझे नहीं पसंद वह सब।
वीकेंड हर महीने चार पाँच बार आता था। समय बदलता रहता किन्तु उसके आने और बात करने का सलीका नहीं बदलता था। वह उसी की बाहों में होती थी और होता कुछ न था। कई बार मुझे ऐसा आभास होने लगता कि वह शायद इस तरह हर बार जाने से उकताने लगी है। उसने कहा भी था। मैं फिर से हमारी बातों से गुज़रते हुये पाता हूँ कि हाँ ऐसा ही कहती थी।
एक रात उसने कहा। कम ऑन, होल्ड मी।
रात उदास थी। हॉस्टल के कमरे में जो तनहाई थी उसने पूरे दिल्ली शहर को ढक लिया था। कहीं कोई सहारा न था। हॉस्टल के पास के हाईवे पर गुज़रते हुये ट्रक इस बेहिसाब तनहाई को तोड़ नहीं पाते थे। उन ट्रकों के पहियों की आवाज़ किसी भिनभिनाहट की तरह बुझ जाती।
इधर रेगिस्तान में एक बड़ी लंबी दीवार के पास लगे लेंप पोस्ट के नीचे मच्छर थे। वैसे ही जैसे उसको हॉस्टल की सीढ़ियों पर बैठ कर बात करते हुये काटा करते थे। मगर इधर एक और चीज़ थी जो उधर न थी। मैं सचमुच किसी प्रेम में था और उसको इस बारे में कुछ बता नहीं सकता था.
कल दोपहर फिर वही वक़्त था।
तुम्हारी इतने दिनों तक आवाज़ नहीं आती कि मैं भूल जाता हूँ सलीके से रोना भी।
इन दिनों उतरते रहते हैं प्रेत साये के जैसे पारदर्शी नक्शे
मैं देखता हूँ तुमको भीड़ के बीच धूप के टुकड़ों पर चलते
हवा में जाने किसकी मालूमात लेते हुये तुम देख रही हो होती हो मेरी तरफ
मैं जो जाहिर था बंद कमरों के अँधेरों में, जालियों में क़ैद बालकनी में आती रोशनी में
मैं जो हाजिर था तुम्हारी बीती ज़िंदगी पर गिर रही रोशनी का गवाह।
वहीं दो बच्चे किलकते हैं
स्कूल में गुजरे वाकयों के लंबे सिलसिले लिए हुये
मैं देखता हूँ अजनबी लोगों की बंद सूरतें
तुम्हारी आँखें चहलकदमी करती हैं रंगीन झालरों के बीच
हर कोई जहां नोलिज़ की हवस से ढक रहा था अपनी बदशकल हसरतों की स्याही।
हम खड़े थे वहीं उस वक़्त और
बदन के पेचदार रास्तों से गुज़रने से पहले आवाज़ों के कारोबार के दिनों में
मैंने कहा था कि मुहब्बत है, ये मुहब्बत किसी नाम और शक्ल से शुरू नहीं होती
ये कुदरत का एक अंधा दांव है जो आ पड़ा है हमारी झोली में।
कुछ रोज़ पहले की बारिश में
नीम से झड़ गयी सारी निंबोलियाँ
अब वे बेर की सूखी गुठलियों जैसी दिखती हुई बिखरी पड़ी हैं
हाँ फिर से आने को है बेरी पर बहार का मौसम
मैं फिर से अपनी जेबों में कच्चे बेर भरे हुये बैठा रहूँगा स्टुडियो की सीढ़ियों पर
फिर एक आदमखोर जंगली जानवर का साया आहिस्ता से सरसराएगा हेजिंग के पीछे से
मुझे खींच कर ले जाएगा घने ठंडे अंधेरे में
मेरे बुझे हुये दिल के पास बैठा हुआ शिकारी देखेगा आखिरी बार अपनी चमकती आँखों से।
मैं दुआ करूंगा कि उस जंगली जानवर को
जीवन में एक बार पुकारना आ जाए तुम्हारा नाम
कि मैं यही सुनना चाहूँगा उस वक़्त जब मारी जा चुकी होगी मेरी देह
और मेरे प्राण उसे कह रहे होंगे आखिरी विदा
कि इसके बाद खुशी से जा सकूँ मैं हवा के साथ उन्हीं धूप के टुकड़ों तक।
तुम्हें मालूम है?
उस आदमखोर शिकारी के आने से पहले भी मैं मारा जाता हूँ कई कई बार
अपने ही हाथों, शाम के झुटपुटे में तुम्हारा खयाल आते ही।