मेरा बारह साल का बेटा मुझे एक फिल्म की कहानी सुनाता है. उसके चेहरे पर सिर्फ कल्पना, हास्य और आनंद का बोध दिखाई देता है. ये एक अमेरिकन फंतासी - हास्य सिनेमा है जिसका शीर्षक है द मास्क. डार्क होरेस की कोमिक सीरीज पर बनी इस फिल्म के बारे में, मैं जब पहली बार सुन रहा होता हूँ तो अपनी उम्र के हिसाब से चिंतित होता जाता हूँ. इसलिए कि कई बार हम समझदार होने की प्रक्रिया में सरल सुखों को जटिल सम्प्रेषण में ढाल देते हैं. मुझे समझदार होना ही चाहिए कि किसी मुखौटे की कहानी देखकर मेरा बेटा क्या प्रतिक्रिया कर रहा है, इससे ये मालूम हो कि उसके कच्चे मन पर इस सिनेमा ने क्या असर डाला है. कई बार मुझे किसी लड़ाकू विमान की आवाज़ घर के किसी कोने से आती हुई सुनाई देती है और उसके समानांतर कोई दूसरा टोही विमान अपने तन्त्र से रोबोट भाषा में संदेशे भेज रहा होता है. इस तरह एक काल्पनिक युद्ध घर के ड्राइंग रूम या हमारे बेड रूम के कोने में चल रहा होता है. ऐसे युद्ध और वर्च्युअल फाइट्स को हमारे नन्हे मुन्ने घरों में रचते रहते हैं. घर में बच्चों की आवाज़ आती रहे, वे बिना किसी वास्तविक खतरे के खेलते रहें तो हम खूब निश्चिन्त रहते हैं. बच्चों की इस तन्हाई से कभी अचानक मैं उदास होने लगता हूँ. सोचता हूँ कि शक्तिशाली ‘हाक’ के द्वारा संचालित रक्षा प्रक्रिया और युद्ध ने बेडरूम के कोने से किस चीज़ को विस्थापित किया है. सबसे पहले मुझे संगीत का खयाल आता है. हमारे घरों से संगीत को बेदखल कर दिया गया है. काल्पनिक युद्ध ने वास्तविक आनंददायी और आत्मा को शीतल शांत करने वाले संगीत को हमारे बच्चों से छीन लिया है. दूसरी जो चीज़ बेदखल हुई वह है कविता. घरों में जहाँ कहीं चर बच्चे मिल जाते उनके खेलों से कविता के स्वर आया करते थे. वे तुकबन्दियाँ इतनी मधुर और प्रिय होती थीं कि बड़े भी मन में गुनगुना रहे होते. कई बार मैंने देखा कि बच्चों की माएं और बुआ भी अपने काम छोड़ कर बच्चों के खेल में शामिल हो जातीं. लेकिन अब घरों के कोनों से नायक कहता है, अधिक शक्ति के साथ अधिक जिम्मेदारियां आती हैं. बचपन उसी जिम्मेदारी के बोझ तले दब गया है.
द मास्क फिल्म का नायक और खलनायक दोनों वैसे ही पात्र हैं जैसे कि हम अब तक की फिल्मो में देखते आये हैं. शोषण, अपराध, कानून विरोधी काम और अपनी मर्ज़ी से सारी दुनिया को काबू में करने की भावना से भरे हुए और नायक इसी दुनिया को बचा लेने के लिए अपना पूरा दम लगाये हुए. इस फिल्म का मुखौटा जादुई है. वह जिसके पास होता है उसे अपने काबू में कर लेता है. उसे अपने हित में संचालित करने लगता है. वैसे मुखौटा रंगमंच का अभिन्न अंग है लेकिन कई बार कहते हैं कि किसी खास तरह की भूमिकाएं करते हुए अदाकार में उसी तरह की प्रवृतियाँ घर कर जाती हैं. मेरा ध्यान उन मुखौटों की ओर जाता है जिन्हें भारतीय राजनीति में पिछले कुछ एक सालों में किसी हथियार की तरह उपयोग में लाया जा रहा है. राजनीति में किसी उन्माद और लक्ष्य प्राप्ति के लिए युवाओं को जो मुखौटे पहनाये जा रहे हैं, उनका परिणाम अभी आना शेष है कि इस मुखौटाधारी और अक्ल निकाल ली गयी कौम का अंजाम क्या होगा. मुखौटा पहनते ही हम अपने असल दयालु, आत्मीय, कोमल और निर्मल भाव से दूर हो जाते हैं. हमने जो मुखौटा धारण किया है, वह मुखौटा हमें उसके जैसा होने के लिए ही उकसाता है. वह एक नकली आवरण या चेहरा हमारे संस्कारों को रोंद देता है. किसी साधू का मुखौटा पहनते ही जिस तरह दया और करुणा हमारे मन में बहने लगती हैं, उसी तरह राक्षस का मुखौटा पहनने पर भी राक्षसी प्रवृतियाँ हमारे भीतर की ओर संचारित होगी. आदिम काल से मनुष्य अपने लोक आयोजनों में स्वांग धरता आया है. इसके लिए वह पशु पक्षियों के रंग रूप रचता है. वह पंछियों के पंखों से या जानवरों की खाल ओढ़ कर उनकी आदतों और व्यव्हार को प्रदर्शित करता है. ये सीखने की प्रक्रिया है. इससे नन्हे बच्चे सीखते हैं कि शेर या मांसाहारी जानवर किस तरह शिकार करते हैं. अबोध मन को ये सूचित किया जाता है कि हमको इन जानवरों से बचना चाहिए. इसी तरह पंछियों के पंखों से ढके हुए कलाकार उनके साथ सहजीवन का संदेशा देता हैं. ये मुखौटे पहनने वाले कलाकार आयोजन के बहुत देर बाद तक वैसी ही हरकतें करते रहते हैं. उनकी चाल में वही शिकारीपन बना रहता है. उनके बोलने का ढंग भी उतना ही सख्त रहता है. इस तरह किसी मुखौटे के प्रभाव से बाहर आने में वक्त लगता है.
हम इसे आसानी से समझ सकते हैं कि हमारे चेहरे की असली पहचान को चुरा लेने वाले ये मुखौटे कितने प्रभावी हैं और इनके परिणाम कैसे हो सकते हैं. हालाँकि रामलीला में राम की भूमिका करने वाला राम और वानर की भूमिका करने वाला वानर नहीं हो जाता मगर ये भी सत्य है कि वे कलाकार उन भूमिकाओं के असर में रहते हैं. उनके में मन उसी तरह के रसों का संचरण होता है, जिनको वे ओढते हैं. मेरा बेटा निर्दोष रूप से एक मुखौटे के आस पास रची कोमिक कथा में कुछ एक हास्य दृश्यों को याद करके खुश होता है. उसके लिए मुखौटा एक मनोरंजन है. मैं पूछता हूँ कि अगर वह मुखौटा आपके चेहरे पर कब्ज़ा कर ले और आपको उसी की मर्ज़ी से काम करना पड़े. आपको कोई उम्मीद भी न हो कि उससे कोई छुड़ा पायेगा तब कैसा लगेगा. वह उदास हो जाता है. मैं उसकी उदासी को बढ़ाना नहीं चाहता हूँ. इसलिए कहता हूँ कि यह एक अभिनय है. वह कहता है हाँ ये एक अभिनय है. इसके आगे मैं मुखौटों के प्रभाव के बारे में, वे सब बातें बेटे को कहता हूँ जो मैंने अब तक कहीं हैं. क्या आपको दाग फिल्म का वो गीत याद है- जब भी जी चाहे नयी दुनिया बसा लेते हैं लोग, एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग.
द मास्क फिल्म का नायक और खलनायक दोनों वैसे ही पात्र हैं जैसे कि हम अब तक की फिल्मो में देखते आये हैं. शोषण, अपराध, कानून विरोधी काम और अपनी मर्ज़ी से सारी दुनिया को काबू में करने की भावना से भरे हुए और नायक इसी दुनिया को बचा लेने के लिए अपना पूरा दम लगाये हुए. इस फिल्म का मुखौटा जादुई है. वह जिसके पास होता है उसे अपने काबू में कर लेता है. उसे अपने हित में संचालित करने लगता है. वैसे मुखौटा रंगमंच का अभिन्न अंग है लेकिन कई बार कहते हैं कि किसी खास तरह की भूमिकाएं करते हुए अदाकार में उसी तरह की प्रवृतियाँ घर कर जाती हैं. मेरा ध्यान उन मुखौटों की ओर जाता है जिन्हें भारतीय राजनीति में पिछले कुछ एक सालों में किसी हथियार की तरह उपयोग में लाया जा रहा है. राजनीति में किसी उन्माद और लक्ष्य प्राप्ति के लिए युवाओं को जो मुखौटे पहनाये जा रहे हैं, उनका परिणाम अभी आना शेष है कि इस मुखौटाधारी और अक्ल निकाल ली गयी कौम का अंजाम क्या होगा. मुखौटा पहनते ही हम अपने असल दयालु, आत्मीय, कोमल और निर्मल भाव से दूर हो जाते हैं. हमने जो मुखौटा धारण किया है, वह मुखौटा हमें उसके जैसा होने के लिए ही उकसाता है. वह एक नकली आवरण या चेहरा हमारे संस्कारों को रोंद देता है. किसी साधू का मुखौटा पहनते ही जिस तरह दया और करुणा हमारे मन में बहने लगती हैं, उसी तरह राक्षस का मुखौटा पहनने पर भी राक्षसी प्रवृतियाँ हमारे भीतर की ओर संचारित होगी. आदिम काल से मनुष्य अपने लोक आयोजनों में स्वांग धरता आया है. इसके लिए वह पशु पक्षियों के रंग रूप रचता है. वह पंछियों के पंखों से या जानवरों की खाल ओढ़ कर उनकी आदतों और व्यव्हार को प्रदर्शित करता है. ये सीखने की प्रक्रिया है. इससे नन्हे बच्चे सीखते हैं कि शेर या मांसाहारी जानवर किस तरह शिकार करते हैं. अबोध मन को ये सूचित किया जाता है कि हमको इन जानवरों से बचना चाहिए. इसी तरह पंछियों के पंखों से ढके हुए कलाकार उनके साथ सहजीवन का संदेशा देता हैं. ये मुखौटे पहनने वाले कलाकार आयोजन के बहुत देर बाद तक वैसी ही हरकतें करते रहते हैं. उनकी चाल में वही शिकारीपन बना रहता है. उनके बोलने का ढंग भी उतना ही सख्त रहता है. इस तरह किसी मुखौटे के प्रभाव से बाहर आने में वक्त लगता है.
हम इसे आसानी से समझ सकते हैं कि हमारे चेहरे की असली पहचान को चुरा लेने वाले ये मुखौटे कितने प्रभावी हैं और इनके परिणाम कैसे हो सकते हैं. हालाँकि रामलीला में राम की भूमिका करने वाला राम और वानर की भूमिका करने वाला वानर नहीं हो जाता मगर ये भी सत्य है कि वे कलाकार उन भूमिकाओं के असर में रहते हैं. उनके में मन उसी तरह के रसों का संचरण होता है, जिनको वे ओढते हैं. मेरा बेटा निर्दोष रूप से एक मुखौटे के आस पास रची कोमिक कथा में कुछ एक हास्य दृश्यों को याद करके खुश होता है. उसके लिए मुखौटा एक मनोरंजन है. मैं पूछता हूँ कि अगर वह मुखौटा आपके चेहरे पर कब्ज़ा कर ले और आपको उसी की मर्ज़ी से काम करना पड़े. आपको कोई उम्मीद भी न हो कि उससे कोई छुड़ा पायेगा तब कैसा लगेगा. वह उदास हो जाता है. मैं उसकी उदासी को बढ़ाना नहीं चाहता हूँ. इसलिए कहता हूँ कि यह एक अभिनय है. वह कहता है हाँ ये एक अभिनय है. इसके आगे मैं मुखौटों के प्रभाव के बारे में, वे सब बातें बेटे को कहता हूँ जो मैंने अब तक कहीं हैं. क्या आपको दाग फिल्म का वो गीत याद है- जब भी जी चाहे नयी दुनिया बसा लेते हैं लोग, एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग.