बाद मेरे कोई मुझसा ना मिलेगा तुमको

सुबह का अखबार देखता हूँ. एक तस्वीर है. सात आदमी राजस्थानी साफे बांधे हुए एक सरल रेखा में रखी कुर्सियों पर बैठे हैं. तस्वीर से उनकी उम्र का ठीक अंदाजा नहीं लगा पाता हूँ. मेरे संचित ज्ञान का कोई टुकड़ा कहता है कि उनकी उम्र का अनुपात पचास बरस के आस पास होना चाहिए. इस तस्वीर में ऐसी क्या खास बात है? किसलिए मैं इसका ज़िक्र एक इतनी कीमती जगह पर करना चाहता हूँ. इस तस्वीर में उन सात साफे पहने बैठे हुए भद्र लोगों के आगे राजस्थानी वेशभूषा में एक लड़की ठुमका लगाने की मुद्रा में है. सात में से चार आदमी उस लड़की को ऐसे देख रहे हैं जैसे किसी नृत्य प्रतियोगिता के परीक्षक हों. दो आदमी कहीं सामने देख रहे हैं. एक का सर झुका हुआ है और एक आदमी की सूरत लड़की के पीछे होने की वजह से दिख नहीं रही. ये किसी भी महिला महाविद्यालय का दृश्य हो सकता है. ऐसे दृश्यों की झलकियाँ अब रोज़ ही दिखाई देने वाली हैं. इसलिए कि हम भूल गए हैं हमारी जगहें कौनसी हैं. हमें कौनसी भूमिकाएं सौंपी गयी हैं. हम क्या कर रहे हैं. हम सब जानते हैं कि सबसे बड़ा गुरु माता होती है लेकिन शिक्षा व्यवस्था के तंत्र में विश्व विद्यालयों के अध्यापक ऊँचे गुरु माने जाते हैं. मैं पिछले कई दशकों से देखता हूँ कि छात्र संघों द्वारा आयोजित होने वाले सालाना उत्सवों को महाविद्यालयों के अध्यापकों ने अपने कब्ज़े में ले लिया है और प्राचार्यों ने इस पर चुप्पी साध ली है. छात्रों के कार्यक्रमों की रपटें जब अख़बारों में छपती हैं तो अध्यापकों के ही गुणगान भरे होते हैं. खबर के आखिर में कहीं किसी प्रतियोगिता में स्थान पाने वाले छात्र – छात्राओं के नाम भर छपते हैं. ऐसा लगता है कि अध्यापकों को अपनी ही क्षमता पर भरोसा नहीं रहा कि उनके पढाये सिखाए हुए छात्र-छात्राएं एक जिम्मेदार आयोजक हो सकते हैं. वे अपने स्तर पर महाविद्यालय में अपनी सिखलाई का प्रदर्शन कर सकते हैं. इसलिए अक्सर अध्यापक और कई बार प्रयोगशाला सहायक और लिपिक वर्ग के कर्मचारी भी विषय विशेषज्ञ बन कर ऐसे कार्यक्रमों के अधिष्ठाता बन बैठते हैं. मंच को ही शोभायमान करना हो तो क्या किसी महिला महाविद्यालय को शहर भर में सात पढ़ी लिखी जागरूक और जिम्मेदार महिलाएं नहीं मिल सकती. या फिर ये सोच समझ कर किया जा रहा सामंतवाद का प्रदर्शन है. ऐसा सामंतवाद जो कि एक बेहतरीन अध्यापक को अध्यापक होना भुला दे.

आपको याद ही होगा कि एक महिला पुलिस अधिकारी पर विधानसभा द्वारा गठित एक समिति के सदस्यों के साथ अभद्रता किये जाने पर विधानसभा द्वारा सख्त कार्रवाही की गयी थी. आज ही सुबह अखबार में पढता हूँ कि नाबालिग बालिका के यौन शोषण के आरोप में जोधपुर सेन्ट्रल जेल में बंद प्रवचनकर्ता के समर्थन में आयोजित जेल भरो आन्दोलन के सिलसिले में आयोजित एक सम्मलेन में दो विधायक उपस्थित रहते हैं. इनमें से एक विधायक उसी समिति की मुखिया रही हैं जिसने गांधीनगर महिला पुलिस थाने का औचक निरीक्षण करने के समय महिला पुलिस इन्स्पेक्टर पर बदसलूकी का आरोप लगाया था. आगे चलकर इस विशेष समिति के साथ अभद्रता के कारण इन्स्पेक्टर को कठोर कारावास की सज़ा सुनाई गयी. वह एक महिला पुलिस अधिकारी है. निरीक्षण समिति की मुखिया एक महिला विधायक है. कथित रूप से सताई हुई एक नाबालिग बालिका है. मैं उलझन में पड़ जाता हूँ कि ये कैसा तंत्र है. आप कभी सोच सकते हैं कि महिला अधिकारों के लिए इतना सख्त निर्णय लेकर एक महिला को दण्डित करने वाले तंत्र के ज़रुरी लोग, एक आरोपी को न्यायालय के निर्णय से पहले बेदाग बता रहा है. जनता के चुने हुए ये विधायक उसके समर्थन में आयोजित जेल भरो आंदोलन में शिरकत करते है. मैं उदास हूँ कि हम जिस नैतिकता का दम भरते हैं उसका कहीं पता ठिकाना नहीं है.

बीता साल महिला अधिकारों, उनकी सुरक्षा की चिंता और हुकूक के लिए लड़ाई का खास साल था. हम अपराधों के साये से इस कदर घिर गए हैं कि अपने ही देश में अपनी ही आधी आबादी को रात को घरों से बाहर न निकलने की सलाह देते हैं. हम उनको याद दिलाते हैं कि वे अपराधियों के निशाने पर हैं. हम उनको कहते हैं कि वे जिस समाज का ज़रुरी हिस्सा है उसी में सबसे अधिक असुरक्षित हैं. हद तो ये है कि हम बालिकाओं को इस दुनिया में आने से पहले ही क़त्ल कर दे रहे हैं. इसे रोकने के लिए जागरूकता के अभियान चलते हैं. आखिर पुरुष क्यों इस कदर दुश्मनी पर उतर आये हैं कि उनके निशाने पर हर उम्र की महिलाएं हैं. हमारे भीतर ऐसे कुसंस्कार किसने रोपे हैं. सामाजिक ढांचे में सहशिक्षा के प्रति किसी आशंका या फिर महिलाओं के लिए विशेष शिक्षा के लिए खास संस्थानों की आधारशिला रखते तो हैं मगर आगे हमारी नीयत क्यों बदल जाती है. हम क्यों महिला शिक्षक नहीं नियुक्त नहीं करते. क्यों हम छात्राओं से उनके मंच को छीन कर खुद उस पर सवार हो जाने को नहीं रोकना चाहते. हम क्यों जानबूझ कर एक शहर, कस्बे और गाँव की महिलाओं को महत्त्व न देकर उनको कमतर साबित करते जाने से खुश रहते हैं. पंचायत से लेकर विधानसभा तक में महिलाओं के लिए आरक्षण की तरफदारी के क्या ऐसे ही परिणाम चाहिए कि चुनी हुई प्रतिनिधि, महिला और महिला में भेद करे. एक का विरोध और दूसरे का समर्थन करें. ये सचमुच चिंता का विषय है. रुढिवादी होने से ढोंगी होना और ज्यादा बुरा है. रूढियां हमें बंद समाज से मिलती हैं और ढोंग को हम अपने स्वार्थ और लालच के लिए ओढते हैं. पुरुषों ने महिलाओं को किसी जींस की तरह ही इस्तेमान करना चाहा है. लेकिन अगर ये सच है तो क्या ये सच और बुरा नहीं कहलायेगा कि महिला ही महिला की सबसे बड़ी दुश्मन है. हम आदमी और औरतें जिस तरह मिलकर औरतों को मिटाने पर तुले हैं इसी मौजू पर नामालूम शायर का एक मुनासिब शेर है. "बाद मेरे कोई मुझसा ना मिलेगा तुमको/ ख़ाक में किसको मिलाते हो ये क्या करते हो."

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