रात
हर किसी को छूकर तुम्हारा पता पूछते हुए खुद को पाया. पांवों में भारी थकन
थी, जींस के बदरंग घुटनों पर समंदर के खारे पानी सी सूखी लहरें थीं. गहरे
सलेटी रंग के कमीज की फोल्ड की हुई बाँहों में बीते वक्त की गंध रखी थी.
कोई सीला मौसम था आंधी की तरह आता हुआ. बुझती हुई रोशनियों के बीच जाती हुई
सर्दी की छुअन, याद की रेत में गुम कुछ एक चेहरे, प्याले में भरे हुए पानी
में कोई सोने सा रंग
और अचानक
कोई आहट, कोई साया, कोई शक्ल, कोई कुछ नहीं.
पुल से गुज़री एक कार की हेडलाईट की रौशनी कमरे की दीवार पर उजाला बुनती हुई गुज़री. उस चौंध में कई साल बने और पल भर में मिट गए. यकीनन तुम फिर से पागल हो जाओगे. इसी ख़याल में छत उतर कर से नीचे की ओर चला आया. कड़ाही पर रखे जाने वाले पारदर्शी ढक्कन की तरह बीवी बच्चों की शक्लों को ओढा और बेमजा आलू की तरह सो गया.
सुबह के चार बजकर बावन मिनट हुए हैं. कोई रोता नहीं, कोई हँसता नहीं. काले लिबास को उतार कर शोक के आखिरी पहर में कोई चला गया. वही जो खोज रहा था हर किसी को छूकर. खोयी हुई चीज़ों के बरबाद ढेर में कुछ भी न था तीखा जो चुभ जाता अंगूठे के ठीक बीच. हाथ खाली, पाँव बेजान, बिस्तर दोशीज़ा और सुबह ताज़ा.
गुज़र गयी सुबह.
बिस्तर पर पड़ा हूँ. जैसे किसी ने पानी को भारी चद्दरों में काट लिया है. पानी की वे सतहें मेरे ऊपर उतर रही हैं. सघनता है. सोच है कि शायद सांस लेने में कुछ ही देर बाद मुश्किल होने लगेगी. अपने हाथ को ऊपर उठाता हुआ पानी की चादर से बाहर निकलना चाहता हूँ. कुछ नहीं, बस एक सीलापन है. हथेली में कोई हल्का ठंडा स्पर्श है. खालीपन की छुअन.
आँख में कोई खराबी हुई कि एक गीलापन मुसलसल बह रहा है. चुप, गालों से होता हुआ गले तक और आगे
एक नीले टीशर्ट में खो जाता है. मैं गडरिये को आवाज़ देता हूँ हांक ले जाओ इस उदासी की भेड को. इसलिए अपनी आँखें पोंछता हुआ एक बार खूब लंबे तक होठों को खींचता हूँ. फूल खिलते और मुरझा जाते हैं.
एक पीला रंग था आहिस्ता से बुझ रहा है. स्याह होने तक के लिए. राख की शक्ल में बिखर जाने को. सफ़ेद रंग के लिहाफ बेढब बिखरे पड़े हैं और कुछ नहीं है. कुछ भी नहीं. हाँ कभी कभी आँख का पानी रास्ता बदलकर नाक से बहने लगता है तो फिर कोई उम्मीद आती है. उम्मीद कि खराबी सिर्फ मन की नहीं है.
जनवरी तुम छीज चुकी हो अपनी हद तक, मुझे मगर कोई हल नहीं, मैं हूँ सीढियाँ उतरते तुम्हारे साये की छाँव में, तुम्हारे कुर्ते से उड़ कर आती हवा में, तुम्हारे कान के बूंदों से टपकते हुए काजल जैसे रंग में, तुम्हारी आँखों में रखी आखिरी घड़ी में.
मैं हूँ पानी की गहरी सतह के नीचे, सांस को मोहताज, घनी तड़प और लाजवाब ऐंठन से भरा हुआ. दुआ में मुंह फाड़े हुए आसमान के रंग को देखता. मैं हूँ उसी खूबसूरत शाम के बिछोह के दुःख से सना हुआ.
आह!
बेहिसाब तस्वीरें और ये डूबती हुई जनवरी की पपड़ियों के बीच किसी बीते वक्त की झांक जैसी ज़िंदगी. मैं फिर थक कर गिर गया हूँ मैं फिर उठूँगा अपना हाल कहने को. तब तक एक बुदबुदाहट है अगर सुन सको
तुम तुम तुम
[पेंटिंग तस्वीर स्रोत : https://www.facebook.com/GlasgowPainter]
और अचानक
कोई आहट, कोई साया, कोई शक्ल, कोई कुछ नहीं.
पुल से गुज़री एक कार की हेडलाईट की रौशनी कमरे की दीवार पर उजाला बुनती हुई गुज़री. उस चौंध में कई साल बने और पल भर में मिट गए. यकीनन तुम फिर से पागल हो जाओगे. इसी ख़याल में छत उतर कर से नीचे की ओर चला आया. कड़ाही पर रखे जाने वाले पारदर्शी ढक्कन की तरह बीवी बच्चों की शक्लों को ओढा और बेमजा आलू की तरह सो गया.
सुबह के चार बजकर बावन मिनट हुए हैं. कोई रोता नहीं, कोई हँसता नहीं. काले लिबास को उतार कर शोक के आखिरी पहर में कोई चला गया. वही जो खोज रहा था हर किसी को छूकर. खोयी हुई चीज़ों के बरबाद ढेर में कुछ भी न था तीखा जो चुभ जाता अंगूठे के ठीक बीच. हाथ खाली, पाँव बेजान, बिस्तर दोशीज़ा और सुबह ताज़ा.
गुज़र गयी सुबह.
बिस्तर पर पड़ा हूँ. जैसे किसी ने पानी को भारी चद्दरों में काट लिया है. पानी की वे सतहें मेरे ऊपर उतर रही हैं. सघनता है. सोच है कि शायद सांस लेने में कुछ ही देर बाद मुश्किल होने लगेगी. अपने हाथ को ऊपर उठाता हुआ पानी की चादर से बाहर निकलना चाहता हूँ. कुछ नहीं, बस एक सीलापन है. हथेली में कोई हल्का ठंडा स्पर्श है. खालीपन की छुअन.
आँख में कोई खराबी हुई कि एक गीलापन मुसलसल बह रहा है. चुप, गालों से होता हुआ गले तक और आगे
एक नीले टीशर्ट में खो जाता है. मैं गडरिये को आवाज़ देता हूँ हांक ले जाओ इस उदासी की भेड को. इसलिए अपनी आँखें पोंछता हुआ एक बार खूब लंबे तक होठों को खींचता हूँ. फूल खिलते और मुरझा जाते हैं.
एक पीला रंग था आहिस्ता से बुझ रहा है. स्याह होने तक के लिए. राख की शक्ल में बिखर जाने को. सफ़ेद रंग के लिहाफ बेढब बिखरे पड़े हैं और कुछ नहीं है. कुछ भी नहीं. हाँ कभी कभी आँख का पानी रास्ता बदलकर नाक से बहने लगता है तो फिर कोई उम्मीद आती है. उम्मीद कि खराबी सिर्फ मन की नहीं है.
जनवरी तुम छीज चुकी हो अपनी हद तक, मुझे मगर कोई हल नहीं, मैं हूँ सीढियाँ उतरते तुम्हारे साये की छाँव में, तुम्हारे कुर्ते से उड़ कर आती हवा में, तुम्हारे कान के बूंदों से टपकते हुए काजल जैसे रंग में, तुम्हारी आँखों में रखी आखिरी घड़ी में.
मैं हूँ पानी की गहरी सतह के नीचे, सांस को मोहताज, घनी तड़प और लाजवाब ऐंठन से भरा हुआ. दुआ में मुंह फाड़े हुए आसमान के रंग को देखता. मैं हूँ उसी खूबसूरत शाम के बिछोह के दुःख से सना हुआ.
आह!
बेहिसाब तस्वीरें और ये डूबती हुई जनवरी की पपड़ियों के बीच किसी बीते वक्त की झांक जैसी ज़िंदगी. मैं फिर थक कर गिर गया हूँ मैं फिर उठूँगा अपना हाल कहने को. तब तक एक बुदबुदाहट है अगर सुन सको
तुम तुम तुम
[पेंटिंग तस्वीर स्रोत : https://www.facebook.com/GlasgowPainter]