रबी की फसल की कुछ सतरें दिखाई पड़ती है. बाकी सब सिमट आया है. कहीं कहीं कुछ बेवक्त की फसलें और हरियाली के टुकड़े हैं. शेष रेगिस्तान में अब कुछ आराम के दिन आयेंगे और आखातीज के बाद फिर से नयी फसल के लिए तैयारियां शुरू होंगी. लेकिन मन मेरा कुछ जगहों पर दुखी हो जाता है कि रेत के आँचल में कुछ बरस पहले पड़त की ज़मीन के सिवा कोई हिस्सा खाली न छूटता था. जहाँ कहीं इंसान बसा हुआ था वहाँ पूरी ज़मीन फसल के लिए जोती जाती थी. मैं पिछली बरसात में गाँव गया. मैंने देखा कि सबके खेत लगभग सूने पड़े हैं. किसी किसी ने ही कहीं फसल बो रखी है. ये बदलाव क्यों आया? ऐसा क्यों होने लगा कि पूर्णतया कृषि आधारित और पशुपालन के सहयोग से जीवन जीने वाले लोग कहाँ चले गए. उनके मन में खेती से दूरी क्यों आई? जीविकोपार्जन के लिए हम कृषि करते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है. इसलिए संभव है कि हमें जीवन जीने के लिए कमाई के और साधन मिल गए हैं. मेरे गाँव के आस पास पिछले सात आठ सालों में तेल उत्खनन, लिग्नाईट के खनन और बिजली बनाने के कारखाने लगते जा रहे हैं. ये सब शहर के तीस एक किलोमीटर के दायरे में हैं. तेल की खोज वाले आए उन सालों में लोगों में एक कौतुहल था कि हमारी ज़मीन पर ये क्या करने वाले हैं. धीरे से डालर रूपया बनकर बहने लगा. आय का नया स्रोत बना. अब ज़मीन, गाड़ी, ड्राइवर, बाबू, चौकीदार और हर तरह के काम के लिए रोज़गार बना. सब कुछ इतना तेज़ी से बदला कि यहाँ के लोग समझ ही नहीं पाए. वे एक बहाव में बह गए. उनके लिए अपना पुश्तैनी काम और संसाधन बोझा बन गए. सब के सब कठिन परिश्रम वाली खेती को छोड़ कर आसन चपरासीगिरी करने को उतावले होकर कंपनियों के आस पास मंडराने लगे. इन सबने अपनी अपनी जुगत लगाई, अपनी धौंस पट्टी चलाई, राजनीतिक और प्रशासनिक दवाब बनाए. ये एक लाभ का सौदा था कि काम कुछ नहीं है. खड़े रहना या हाजिरी भरना है.
इस नये काम के मिलने या इसे पाने के लोभ की होड़ असल में रेगिस्तान में पानी की कमी और मौसमी फसलों के लिए भी मानसून पर निर्भर रहने की मज़बूरी रही. बारिश का कोई पक्का ठिकाना नहीं होता. खेती के लिए पानी वाली ज़मीन कुछ एक छोटे टुकड़ों में हैं, जहाँ कहीं ज़मीन में आदमी की पहुचंह तक कोई वाटर क्यूब हाथ लगा वह वह निश्चिन्त होकर खेती कर रहा था. उसकी आमदनी में कुछ स्थायिपन था लेकिन ये भी कोई ऐसा काम न था जो उसे समृद्धि की ओर ले जाये. यहाँ खुशी की बात बस इतनी थी कि बरसात का इंतज़ार करने से बेरों वाले किसान अपने आपको अच्छे हाल में पाते थे. बस इतना ही गर्व था. लोग हालाँकि माला माल होने की बाते किया करते थे लेकिन मैंने बेरों के मालिक किसी किसान को विलासिता का जीवन जीते हुए नहीं देखा. सबको अपने खेतों में मजदूरी करते हुए ही पाया. इसका अर्थ मुझे सिर्फ इतना समझ आता है कि खेती करना मनुष्य के लिए एक पावन कर्म तो है मगर ये एक मजबूरी भर है. इसका मुनाफा और इसकी लागत का मेल पूरी तरह से मेल नहीं खाता है. किसान देखता है कि छोटे छोटे सरकारी ठेके लेकर उनके भाइयों ने खूब धन बनाया है. उनके पास कम समय में गाडियां और नौकर हो गए हैं. आखिर माजरा क्या है कि साल भर खेत में अपना पसीना बहा कर फसल लेने वाला एक मोटर सायकिल पर और ठेकेदारी करने वाला वातानुकूलित गाड़ी में. इसी हाल में जब कहीं छोटे नौकर हो जाने का अवसर हाथ लगा तो किसान ने खेती बाड़ी छोड़ कर नौकर होना जाना पसंद किया है. गाँव में साल भर काम नहीं होता है. इसलिए कृषक मजदूरी करने के लिए दूर दराज़ के बंदरगाहों तक भी जाते रहे हैं लेकिन जब भी खेती का समय आता वे वहाँ से लौटा कर खेती में मग्न हो जाया करते थे. इस तरह प्पोरी तरह खेती से मोह भंग होना जाना अच्छा संकेत नहीं है. क्या इसका अर्थ ये समझा जाये कि खेती एक मजबूरी का पेशा भर है. अगर ये समझ लिया जाये तो वह दिन दूर नहीं जब भूख देश को अपनी कठोर अष्ट भुजाओं में जकड़ लेगी. भूख मिटाने के लिए रूपया या डॉलर नहं चबाया जा सकता है. उस वक्त उसी अन्न की ज़रूरत होगी जिसे हमारा किसान उपजाता है. किसान खेती करे और सामंत के कारिंदे उसे छीन ले जाएँ, किसान खेती करे और लोक का तंत्र कुछ एक रुपये के बदले हासिल कर ले. इन दोनों हाल में कोई खास फर्क नहीं है. बस के जगह किसान से उसकी फसल इस अनुभूति के साथ ली जाती है कि इसके बदले उसे कुछ दिया जा रहा है. वैसे राजतंत्र भी निशंक जीवन जीने और अपनी जमीन पर बसर करने देता ही था.
हम सबके दिमाग में ये ज़रूर होना चाहिए कि किसान द्वारा की जा रही खेती सिर्फ उसका अपना भरण पोषण भर नहीं है. ये समाज और राष्ट्र के लिए की जाने वाली कमाई है. फिर क्यों ऐसा हाल है कि किसान होना शर्म और अफ़सोस की बात है और चौथे दर्ज़े का नौकर होना उससे अच्छा है. इस हाल के कारणों को तलाश कर अगर हमने समय रहते कुछ न किया तो सोने के चम्मच और चांदी की थालियाँ खाली पड़ी रह जायेगी. हमारी भूख हमको निगल लेगी. हमारे निवाले में रूपया पैसा काम न आएगा. यए खाली छूटती हुई ज़मीन एक गंभीर संकट की ओर संकेत है. इस संकेत को समझना हमारी प्राथमिक ज़रूरत है. गांवों से शहरों की ओर पलायन के खतरे के बाद ये उससे भी बड़ा खतरा है कि गाँव में ही बैठा हस किसान खेती की जगह कुछ और करना चाहता है. हमें सचमुच ऐसी निति की ज़रूरत है जो किसान की फसल पर उसे मोल देने के सिवा ऐसा एप्रिसियेशन भी जो उसके सामाजिक और आर्थिक स्तर को पहले दर्ज़े की ओर ले जाये. साधारण कपड़ों में भरे पेट सुख से जीना, विलासी लिबास में भूखे पेट की मरोड़ों को सहते जाने से बेहतर होगा. उद्योग देश का भला करेंगे मगर भोजन बिन वह भला किसका होगा.
इस नये काम के मिलने या इसे पाने के लोभ की होड़ असल में रेगिस्तान में पानी की कमी और मौसमी फसलों के लिए भी मानसून पर निर्भर रहने की मज़बूरी रही. बारिश का कोई पक्का ठिकाना नहीं होता. खेती के लिए पानी वाली ज़मीन कुछ एक छोटे टुकड़ों में हैं, जहाँ कहीं ज़मीन में आदमी की पहुचंह तक कोई वाटर क्यूब हाथ लगा वह वह निश्चिन्त होकर खेती कर रहा था. उसकी आमदनी में कुछ स्थायिपन था लेकिन ये भी कोई ऐसा काम न था जो उसे समृद्धि की ओर ले जाये. यहाँ खुशी की बात बस इतनी थी कि बरसात का इंतज़ार करने से बेरों वाले किसान अपने आपको अच्छे हाल में पाते थे. बस इतना ही गर्व था. लोग हालाँकि माला माल होने की बाते किया करते थे लेकिन मैंने बेरों के मालिक किसी किसान को विलासिता का जीवन जीते हुए नहीं देखा. सबको अपने खेतों में मजदूरी करते हुए ही पाया. इसका अर्थ मुझे सिर्फ इतना समझ आता है कि खेती करना मनुष्य के लिए एक पावन कर्म तो है मगर ये एक मजबूरी भर है. इसका मुनाफा और इसकी लागत का मेल पूरी तरह से मेल नहीं खाता है. किसान देखता है कि छोटे छोटे सरकारी ठेके लेकर उनके भाइयों ने खूब धन बनाया है. उनके पास कम समय में गाडियां और नौकर हो गए हैं. आखिर माजरा क्या है कि साल भर खेत में अपना पसीना बहा कर फसल लेने वाला एक मोटर सायकिल पर और ठेकेदारी करने वाला वातानुकूलित गाड़ी में. इसी हाल में जब कहीं छोटे नौकर हो जाने का अवसर हाथ लगा तो किसान ने खेती बाड़ी छोड़ कर नौकर होना जाना पसंद किया है. गाँव में साल भर काम नहीं होता है. इसलिए कृषक मजदूरी करने के लिए दूर दराज़ के बंदरगाहों तक भी जाते रहे हैं लेकिन जब भी खेती का समय आता वे वहाँ से लौटा कर खेती में मग्न हो जाया करते थे. इस तरह प्पोरी तरह खेती से मोह भंग होना जाना अच्छा संकेत नहीं है. क्या इसका अर्थ ये समझा जाये कि खेती एक मजबूरी का पेशा भर है. अगर ये समझ लिया जाये तो वह दिन दूर नहीं जब भूख देश को अपनी कठोर अष्ट भुजाओं में जकड़ लेगी. भूख मिटाने के लिए रूपया या डॉलर नहं चबाया जा सकता है. उस वक्त उसी अन्न की ज़रूरत होगी जिसे हमारा किसान उपजाता है. किसान खेती करे और सामंत के कारिंदे उसे छीन ले जाएँ, किसान खेती करे और लोक का तंत्र कुछ एक रुपये के बदले हासिल कर ले. इन दोनों हाल में कोई खास फर्क नहीं है. बस के जगह किसान से उसकी फसल इस अनुभूति के साथ ली जाती है कि इसके बदले उसे कुछ दिया जा रहा है. वैसे राजतंत्र भी निशंक जीवन जीने और अपनी जमीन पर बसर करने देता ही था.
हम सबके दिमाग में ये ज़रूर होना चाहिए कि किसान द्वारा की जा रही खेती सिर्फ उसका अपना भरण पोषण भर नहीं है. ये समाज और राष्ट्र के लिए की जाने वाली कमाई है. फिर क्यों ऐसा हाल है कि किसान होना शर्म और अफ़सोस की बात है और चौथे दर्ज़े का नौकर होना उससे अच्छा है. इस हाल के कारणों को तलाश कर अगर हमने समय रहते कुछ न किया तो सोने के चम्मच और चांदी की थालियाँ खाली पड़ी रह जायेगी. हमारी भूख हमको निगल लेगी. हमारे निवाले में रूपया पैसा काम न आएगा. यए खाली छूटती हुई ज़मीन एक गंभीर संकट की ओर संकेत है. इस संकेत को समझना हमारी प्राथमिक ज़रूरत है. गांवों से शहरों की ओर पलायन के खतरे के बाद ये उससे भी बड़ा खतरा है कि गाँव में ही बैठा हस किसान खेती की जगह कुछ और करना चाहता है. हमें सचमुच ऐसी निति की ज़रूरत है जो किसान की फसल पर उसे मोल देने के सिवा ऐसा एप्रिसियेशन भी जो उसके सामाजिक और आर्थिक स्तर को पहले दर्ज़े की ओर ले जाये. साधारण कपड़ों में भरे पेट सुख से जीना, विलासी लिबास में भूखे पेट की मरोड़ों को सहते जाने से बेहतर होगा. उद्योग देश का भला करेंगे मगर भोजन बिन वह भला किसका होगा.