तुमने एक बार झाँका
और चले गए
ये कैसा प्रेम करते थे तुम.
रात टेबल पर पांव रखे थे. लम्बी कुर्सी पर अधलेटा था. पहला पहर ही बीत रहा था मगर बदन की नाव, नींद के दरिया में उतरने लगी थी. पहले हिचकोले में आँख खुली. दूजे हिचकोले के मोह में आँखें फिर से बंद हो गयी.
प्रेम स्वप्न ही है. नींद का हो तो और अच्छा.
हवा में कलाबाज़ी खाते बजरीगर की तरह प्रेम में चौंक थी. प्रेम में बंदरों वाला मौन था. क्षण भर ध्यान भरी प्रतीक्षा सा दीखता और क्षणभर बाद असंगत नृत्य में लीन मिलता. कभी-कभी प्रेम टीस भरा बेहद छोटा गाना था. कोई परिंदा मुंडेर पर बैठकर गाता और उड़ जाता. जब कुछ न होता तब प्रेम कीकर का सफ़ेद लम्बा काँटा हो जाता था.
मैंने जो महसूस किया, वो लिखा. तुमने समझ लिया कि मैं कोई जादूगर हूँ.
वे किताबें जिनसे तुमको अचानक मोहोब्बत हो जाती है, वे किताबें मेरी हसरतें न थीं. वे किसी लम्हे में बिना चाहना के उग आई थीं. उदासी, टूटन और हताशा थी. यही प्रेम भी था. किसी के साथ थे. तनहा थे. जहाँ जैसे थे, वैसा होने में ज्यादा शिकायतें न थी. प्रेम करते थे. फिर से प्रेम करने लगते थे. आते थे. रुकते थे. और चले जाते थे. इसी सब में सारी परिभाषाएं समा गयीं थी.
इसलिए बहुत बार चुप रहे.
* * *
फेसबुक पर बहुत से नौजवान लेखन की वजह से मुझसे जुड़ते रहते हैं. उन नौजवान पाठकों ने किताबें पढ़ीं तो तात्कालिक उल्लास में किताबों के साथ अपने फोटो टाँगे. लिखी हुई बातें उद्धृत कीं. अपनी सकल प्रशंसा के साथ टैग कर दिया. इनबॉक्स किया. नम्बर माँगा. नम्बर दे दिया. बात करनी चाही. और फिर रूठ गए.
मेरे पास बहुत थोड़ा समय है. उससे भी कम मन है.
मेरे पास कोई सहायक नहीं है, जो मेरी ओर से जवाब देता रहे. किसी को प्रतीक्षा न करनी पड़े. कोई उपेक्षित महसूस न करे. मेरे पास केवल मैं हूँ. अनगढ़, ला परवाह और किसी इल्यूजन में खोया हुआ. मेरे पास कहने के लिए एक ही बात है. जब मिलेंगे तब तुमसे सटकर बैठेंगे. जैसे दो प्रेमी बैठे हों.
प्रेम के आगे चेक का निशान लगाये रखो.
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दुनिया बहुत तंगहाल है. थोड़ा सा दिल बड़ा रखो. थोड़ा सा सब्र करो.
शुक्रिया.
[तस्वीर - गूगल सर्च]