अच्छा लेखक बनने के बारे में बातें.

पहली बात ये है कि आप चाहते कुछ हैं करते कुछ. आपकी चाहना है कि बड़ी पत्रिकाओं में आपकी तस्वीरें छपें और आपके लेखन के बारे में अच्छी बातें लिखीं हों. समाचार पत्रों के साप्ताहिक परिशिष्ठ हर दो एक महीने में आपके लिए कसीदे पढ़ दें. आपको इकलौता अद्वितीय लेखक बताते रहें. ऐसा आप इसलिए चाहते हैं कि जहाँ जाएँ लोगों की भीड़ आपको घेर लें. उस भीड़ में आपके अपोजिट सेक्स वाले सुन्दर चहरे भी हों और आप उनके दोस्त बन जाएँ. दोस्त कहना तो फिर भी काफी अच्छी बात है. आपकी असल चाहना है कि आप जीवन को भोग सकें. एक से दूजे व्यक्ति को छूते हुए भागते-भागते दुनिया के आख़िरी छोर तक पहुंच जाये.

तो पहली बात ख़ुद से पूछो कि क्या सचमुच लेखक बनना है या लोगों के साथ अन्तरंग होना हो. अगर पहली या दूजी कोई भी बात है तो आपको ये प्रकाशकों-संपादकों की हाजरी में खड़े रहना, आलोचक बनकर किताबों की समीक्षा के नाम पर चाटुकारिता करके अपना समूह बनाना, कोई ई मैगजीन शुरू करना, सम्मान पाने के लिए अवसर तलाशना बंद कर देना चाहिए. आपको यात्रा करनी चाहिए. ऐसी जगहों पर नौकरी करनी चाहिए जहाँ कई दिनों तक ठहरने वाले पर्यटक आते हों. आप कुछ भी बन जाएँ. शराब परोसने वाला बनें, टेबल साफ़ करने वाला बनें, ऑर्डर लेने वाला बनें या कुछ भी बनें. इसके बाद लोगों को प्रेम से देखना और सम्मान से बोलना सीखें. मुझे आशा है लेखक बनकर जो आप चाहते हैं उससे अधिक अवसर यहाँ पर हैं.

लेखक बनकर आप बड़ी प्रसिद्द चीज़ बन जायेंगे. तो आपके लिए एक उदास करने वाली बात मेरे पास है. सेलेब्रिटी लेखक कुछ नहीं होता है. सेलेब्रिटी केवल सिनेमा होता है. वहां भी केवल नायकों के घर के बाहर भीड़ जमा होती है. नायक का पीए इन्फॉर्म करता है सर अब काफी भीड़ जुट गयी है आप बाहर आकर दर्शन दे सकते हैं. नायक बालकनी जैसे मोर्चे पर आता है और विश्वविजेता की तरह हाथ हिलाकर अभिनंदन करता है. भीड़ चिल्लाती है और नायक एक-आधा संवाद बोलकर या शुभकामनाएं देकर अन्दर चला जाता है. भीड़ छंट जाती है. लेखक सेलेब्रिटी कहीं पैदल जा रहा होता है तो लोग देखकर फुसफुसाते हैं देखो ये वो है. लेखक उनको देखकर मुस्कुराता है. उसे लगता है कि वे उनके बारे में ही बात कर रहे हैं. सेलेब्रिटी लेखक डिनर के लिए जाता है तो कुछ लोग अपना खाना छोड़कर शालीनता से उसके पास खड़े होकर फोटो खिंचवाते हैं. उससे ऑटोग्राफ लेते हैं. सेलेब्रिटी लेखक इससे अधिक कुछ नहीं होता है. इसलिए सेलेब ऑथर एक भ्रम है इससे बाहर आ जाओ.

बेस्ट सेलर ये एक ऐसा शब्द युग्म है जिसके बारे में आप सदा गफलत में बने रहते हैं. दुनिया की बात छोड़ देते हैं. भारत में भी बेस्ट सेलर ऑथर हैं. जिनकी किताबों की दो लाख से अधिक प्रतियाँ बिकती ही हैं. हर प्रति पर लेखक को कम से कम दस रुपया भी मिलता है तो एक पुस्तक से आय कितनी बनती है? बीस लाख रूपये. माने किसी साधारण नौकरी के पांच बरसों का कुल जोड़. इधर बहुत सारे हिंदी के बेस्ट सेलर लेखक हैं आप क्या सोचते हैं कि वे कितना कमा रहे होंगे? लाखों में बिकने वाले "पुलिस वाला गुंडा" जैसे लोकप्रिय और सस्ते उपन्यास कहे जाने वाली किताबों को अलग कर दें तो हिंदी में रवीश कुमार और सत्य व्यास ही मुझे ऐसे दो लेखक जान पड़ते हैं जिनकी किताबें बीस-तीस हज़ार बिकती हैं. मुझे प्रकाशन जगत की ये सतही जानकारी भर है. संभव है कि प्रकाशक लाखों किताबें बेच रहे हों और लेखकों को रोयल्टी न देने के लिए छिपा रहे हों. हालाँकि चोरी होती होगी लेकिन ये इतना बड़ा आंकड़ा न होगा. बेस्ट सेलर बनना हो तो "तमगे वाला बेस्ट सेलर" बनने की जगह "पैसा कमाने वाला" बेस्ट सेलर बनना.

आप सोचते हैं कि लेखक बड़े लोगों के साथ उठता बैठता है. रुपहले पर्दों पर रोशनियों के जादुई संसार में अपनी बातें बोलता हैं. उसे बेहद प्रेम मिलता है. उसकी इज़्ज़त होती है. तो आप कुछ गलत नहीं सोचते. ऐसा होता है. आप अनगिनत एफर्ट लेकर वहां तक पहुँच जायेंगे. ख़ुश होंगे. लेकिन ऐसा कितनी देर होता है? ये ज़रूर सोचना. शो कब तक चलेगा? मेला कितने दिन का है? कल आँधियां सब बुहार ले जाएगी तब क्या करोगे? तब अफ़सोस से भर जाओगे. तब न भरे तो जीवन में एक पड़ाव ऐसा आएगा कि आप सोचोगे क्या पाने के लिए कितना कुछ गंवा दिया. जीवन को बेहतरी से जीया जा सकता था.

भाई कौन नहीं चाहता कि उसे हर कोई जाने? जो ऐसा नहीं चाहता वह सनकी है. मैंने ऑनलाइन डायरी लिखनी शुरू की. नाम रखा हथकढ़ माने हाथ से बना हुआ कच्चा या फिर कोई अवैधानिक उत्पाद. उसमें ब्लॉग करने वाले का प्रोफाइल होता है. वहाँ अपनी पहचान न लिखी. वहां लिखा- "आवत जावत पहनियाँ टूटी, बिसरी गयो हरी नाम, संतन को कहाँ सिकरी सो काम ~ कुम्भन दास" दो हज़ार दस की आखिरी पोस्ट से रवीश साहब कहीं टकरा गए. उन्होंने ब्लॉग छान मारा और हिंदुस्तान के रविवारीय अंक में चार पांच कॉलम का ब्लॉग चर्चा जैसा कुछ छाप दिया. तब रवीश कुमार केवल अच्छे पत्रकार थे. अब वे अच्छे और दुनिया के बहुत बड़े पत्रकार हैं. उन दिनों कुछ दिन हमने एक दूजे को इनबॉक्स किया. रवीश की रिपोर्ट के बारे में सूचना आती और फिर मैं इंतज़ार करके उसे देखा करता. लेकिन मैंने उनसे कोई सम्बन्ध बनाने, मित्रता गांठने के बारे में नहीं सोचा. इस पर मैंने पाया कि सम्मान पाने के लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है. आप अच्छा काम कीजिये लिखिए सम्मान आप तक ख़ुद चलकर आएगा.

कुछ लेखक बड़ा बनने को मुम्बई भाग जाते हैं. पहले तो मज़बूरी थी पर अब इंटरनेट है. तो क्यों कहीं जाना? एक बेहद सफल डेली सोप बना चुकी मुम्बई की एक कम्पनी को तीन लड़कियां चलाती हैं. उनका मेरे पास पहले इनबॉक्स आया फिर नम्बर एक्सचेंज हुए. वे मुझसे लिखवाना चाहती थीं. कई बार फोन पर बात हुई. तीन में से दो लड़कियों से जब बात हुई तो मैंने उनसे कहा "आप एक गलत लेखक से बात कर रही हैं. मुझमें वह कैलिबर है ही नहीं कि इस तरह श्रृंखलाबद्ध और किसी मांग के अनुरूप लिख सकूं." उन्होंने फिर भी मुझे मान सम्मान दिया. कहानी का प्लाट या क्या बन सकता है का ड्राफ्ट भेजा. पायलट एपिसोड लिख दें, यहाँ तक बात हुई. मैंने कहा "मैं सचमुच ये काम नहीं करना चाहता" उन्होंने मुझे पारिश्रमिक के बारे में हर तरह की बात कही लेकिन मैं मन न बना सका. उसके बाद हुआ ये कि अब हम दोस्त हैं. वे अपना काम कर रही हैं. मुझे ख़ुशी हुई कि उन्होंने मेरी कुछ कहानियां पढ़कर मुझ पर भरोसा किया था.

वृत्तचित्र बनाने में राष्ट्रीय स्तर तक प्रसिद्द व्यक्ति हैं. उनका मेरे पास फोन आया. आपके साथ काम करना है. आपके लिखे पर काम करना है. आ जाइये मिलते हैं. वे छोटे भाई के परिचित थे. भाई ने ही उनको मेरी कोई किताब गिफ्ट की होगी. किताब उनको पसंद आ गयी थी. भाई ने भी मुझे फ़ोन किया था. मैंने कहा- "आप काम कीजिये. मैं आपको रचनाओं के अधिकार देता हूँ" इसके बाद एक दो बार फ़ोन पर बात हुई मगर फिर हम एक दूजे को भूल गए. मैं किसी औपचारिक लंच डिनर के लिए नहीं जाना चाहता था. शायद उनका काम इसके बिना चल नहीं रहा था. वे मुझे पैसा लगाने वाले से मिलवाते. मैं ऊँची-ऊँची हांकता. फिर सब अपने हित साधते लेकिन ये हो न सका. मुझे क्यों कहीं जाना चाहिए. मुझे तो मेरे आस-पास ही बहुत से लोग प्रेम करते हैं. उनका प्यार काफी है.

एक पब्लिशर का ऑफर था. उन्होंने योग्य जानकर दिया मैंने ख़ुद को उनके काबिल न जानकार कहा कि लिख सका तो आपको ज़रूर दूंगा. मैंने एक बेहद प्रतिभाशली लेखक का नाम भी उनको बताया. आप आशीष चौधरी से कहिये. आशीष मुझ पर हंसने लगे कि मैं उनको गंभीर साहित्य वाला नहीं मनाता हूँ इसलिए उनका नाम ले रहा हूँ. लेकिन मैंने कई बरसों बाद जो उपन्यास पूरा पढ़ा वह आशीष का उपन्यास है कुल्फी एंड केपेच्युनो. इधर फिल्म इंस्टिट्यूट के कुछ बच्चे बड़ा प्रेम करते हैं. मुझे मैसेज करते हैं तो उनको कहता हूँ कि मेरी सब कहानियों पर फ़िल्में बना दो, रूपक बना दो, ड्रामा बना दो, जो चाहो सो करो. बस मुझे बताना ज़रूर कि क्या बनाया है. तुमको सब सर्वाधिकार हैं. वे पता नहीं क्या करते हैं लेकिन प्रेम ख़ूब करते हैं.

पिछले दस बरसों में ऐसे अनेक प्यारे, योग्य, प्रतिभाशाली और प्रसिद्द लोग मुझसे मिले. उन्होंने आगे होकर मुझे काम ऑफर किया. ये उनका बडप्पन है. लेकिन मुझे मेरा रेगिस्तान और एकांत प्यारा है. मुझे कोई स्थायी नाम नहीं चाहिए था इसलिए कि स्थायी कुछ होता ही नहीं है. तो मैंने सबको जाने दिया.

ये सब क्यों होता है? इसलिए कि मैं लेखन के प्रति ईमानदार हूँ. लिखने को व्यवसाय नहीं बनाना चाहता. लिखने से यश, प्रसिद्धि, धन और पद नहीं पाना चाहता. अपने एकांत में लिखता हूँ. मन का लिखता हूँ. इस बात की परवाह नहीं करता कि मेरे लिखने से कोई मुझे जज करता है. मुझे मेरी किताबों को बेचने के प्रति कोई मोह नहीं है. शैलेश मेरे मित्र हैं ये अलग बात है. प्रकाशक हैं ये अलग बात है. मैंने उनसे कहा हुआ है कि जब किताब न बिके तो बताना, अपने ऊपर बोझ न उठाना. क्या मिलता है किताब छापकर? चालीस रुपया प्रिंटिंग को चला जाता है, बीस एक रुपया ऑनलाइन स्टोर वाले काट लेते हैं. पीछे बचे पच्चीस तीस रूपये. हालाँकि ये भी बहुत होते हैं जब किताब एक साथ बीस-बीस हज़ार प्रतियों में छपती हो. मेरी किताब तो हज़ार प्रति में छपती है. चौराहे पर सीढियां अब शायद चौथी बार रिप्रिंट को जाएगी. माने कोई चार-साढ़े चार हज़ार प्रति अब तक बिकी है. जादू भरी लड़की दो बार प्रिंट हो गयी और छोरी कमली को मिलाकर दस हज़ार किताबें छपी हैं. ये कोई ऐसा आंकड़ा नहीं है कि आप फूल कर कुप्पा हो जाएँ. आप लोगों को कहने लगें कि भाई मैं बेस्ट सेलर हूँ मुझे क्यों नहीं जानते.

जोधपुर के एक कार्यक्रम में प्रोफ़ेसर लक्ष्मी शर्मा मेम मिल गयी. मैंने उनको अभिवादन किया तो उन्होंने पहचाना नहीं. उनके पूछने पर कहा कि मेम मैं किशोर चौधरी हूँ. बाड़मेर में रहता हूँ. आपकी फ्रेंड लिस्ट में कुछ समय था फिर मैंने अकाउंट बदल लिया. उस लेखिका ने मुझे नहीं पहचाना या वे मेरे लेखन के बारे में नहीं जानती तो क्या हुआ. क्यों किसी को सबकुछ जानना चाहिए. लोगों की इज़्ज़त करिए, वे आपकी करेंगे.

आखिर में लिखने के बारे में बताता हूँ.

आज ऑफिस जाते हुए दो भंवरे एक दूजे के पीछे उड़ते हुए मेरे आगे से निकले. तो मुझे ख़याल आया कि इस बात को लिखना चाहिए. "देखो कैसे इसी तरह हम दोनों एक दूजे के आगे पीछे फिरते थे. फिर से आगे पीछे फिरने का मौसम आ गया है तुम न जाने कहाँ हो?" ऐसे सरल वाक्य भी मेरे प्रिय कवि नहीं लिख पाते. उनको पिछली आधुनिक छन्दमुक्त कवि पीढ़ी ने आड़ी-तिरछी और बेढब विन्यास वाली शब्दावली लिख-लिखकर खूब बर्बाद किया है. तो कवियों और कवयित्रियों सरल सहज वाक्य लिखने का अभ्यास कीजिये. सबसे पहले यही सीखिए. और कहानीकार मित्रों को बड़ा लेखक बनना है तो रोज़ लिखिए. जब लगे कि मामला जम रहा है तब एक टारगेट लीजिये कि मुझे एक कहानी को धारावाहिक रूप से लिखना है. रोज़ हज़ार शब्द लिखूंगा. कुल दस से बीस कड़ियाँ लिखूंगा. उसे रोज़ ही फेसबुक पर पोस्ट भी कीजिये. बड़ा गहरा नशा है. ज़बरदस्त नशेड़ी मिलेंगे. तुम्हारा इंतज़ार करेंगे. ये साध लोगे न तो रुपया कमाने वाले बेस्ट सेलर बन जाओगे या इज्जत कमाने वाले बेस्ट ऑथर बन जाओगे. न बन सको तो मेरे पास आना. मुझे उलाहना देना. मैं माफ़ी मांग लूँगा और फिर शाम को बैठकर दारू पियेंगे. आख़िर एक लेखक बनना ही तो ज़िन्दगी में सबकुछ नहीं होता.

[Painting : Winslow Homer reading by the brook 1879]

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