मुश्किल कामों में से एक काम है सीखे हुए को भुलाना।
सीखना हमारे भीतर इस तरह पैठ करता है कि हम उम्र ढल जाने तक भी अपने आपको बदल नहीं पाते हैं। हमसे पहले की पीढ़ी या हमारी पीढ़ी के पास सीखे को भुलाने का हुनर कम ही देखने को मिलता है।
अनलर्निंग एक कठिन कार्य है।
माँ को चीज़ें संभाल कर रखने की आदत है। वे ताले जो ख़राब हो चुके या लगभग गायब हो गए हैं उनकी चाबियों से लेकर सागवान की लकड़ी से बने दरवाज़े जो चौखट से उतर चुके हैं को संभाल कर रखती हैं। इस तरह अनगिनत चीजें कबाड़ की तरह जमा है।
ऐसा इसलिए है कि वे उन दिनों बड़ी हुई जब चीज़ों की उपलब्धता लगभग अप्राप्य थी। आप आज की तरह बाज़ार जाकर कुछ भी खरीदकर नहीं ला सकते थे। उन दिनों सहेजी हुई चीज़ें ही हमारे अटके काम निकालती थी। घर में सुई की जगह सुई और कुदाल की जगह कुदाल सहेजी जाती थी।
मैंने दादा के भंडारघर में लोहे की चद्दरों वाली छत के नीचे, दीवार में आलों और ओने कोने में अनेक ऐसी वस्तुएं देखी थी जिनका उपयोग लगभग कभी न देखा गया। बचपन में जिस किसी घर गया वहां मैंने पाया कि बाखल में, बाड़ में और घर के बाहर की तरफ भी अनेक अनुपयोगी चीज़ें लगभग सहेजी हुई पड़ी रहती थी।
गांव में तो जगह है। बड़े घर हैं। इसलिए चलता है लेकिन छोटे क़स्बों में अटालाघर रखना असम्भव सा है। समय भी इस तरह बदला कि यूज ऐंड थ्रो चीज़ों ने हमें घेर लिया। अब हर दिन हर घर से प्लास्टिक कचरे का उत्पादन होता है। अगर खाली बोतलें, थैलियां और कार्डबोर्ड के बक्से संभालने लग जाएं कि कभी काम आएंगे तो सोचिये क्या हाल होगा?
ये हाल लगभग हर उस घर का है जिसमें कोई बुजुर्ग साथ है। वह व्यक्ति हमेशा ऐसी ही चीज़ों पर नज़र रखता है। वह लगभग कबाड़ के संग्रहणकर्ता की भूमिका में रहता है लेकिन किसी कबाड़ी की तरह उसका निस्तारण कभी नहीं करता। इस कारण मैं कबाड़ी के स्थान पर संग्रहण करता कहता हूँ।
हम तीन भाइयों में केवल मनोज का परिवार ऐसा है जो कम उपयोगी वस्तुएं किसी ज़रूरतमन्द को दे देता है, अनुपयोगी वस्तुओं का त्वरित निस्तारण करता है। वह ज़्यादा लालच भी इस बात का नहीं रखता कि किसी वस्तु के बदले कुछ मिल जाए।
आप इसे बड़ा अधिकारी होना कहकर टालना चाहें तो मेरे पास उच्च पद और अथाह धन वाले ऐसे अनेक लोगों के उदाहरण है जो जीवन भर कूड़े के संग्रहण में डूबे रहे हैं। इसका अर्थ है कि वस्तुओं के प्रति लगाव और उनकी सहेज दिमाग में रच बस गयी एक सीख है। ये उनकी मूर्खता या कमअक्ली नहीं है कि वे समय के साथ नहीं चल पा रहे। ये उनकी समझ में बैठा स्थायी भाव है कि कोई चीज़ कभी काम आएगी।
माँ के इस संग्रहण में उपस्थित चीज़ों की एक लिस्ट मैंने पिछली एक पोस्ट में साझा की थी। उसमें सन बासठ की घिस चुकी लोहे की डिबड़ी, रेलवे ट्रेक के अलार्मिंग पटाखे, एक टूटा हुआ फौज़ी हेलमेट जैसी चीजें थी। माँ की नौजवानी के दिनों में जो सामान घर में आया वह टूट फूट, रो धोकर थक हार कर बैठ गया लेकिन घर से बाहर न जा सका।
कुछ रोज़ पहले ऑफ़िस तक पहुंचा कि घर से कॉल आया। "एक पांच छह फ़ीट का ब्लैक किंग कोबरा घर में आकर बैठ गया है।" मैंने आभा से कहा "आप लोग बाहर बाखल में न जाइये। घर के अंदर रहिये मैं ड्यूटी करके आता हूँ तब देखते हैं।"
मैं लौटा। बाखल का दरवाज़ा खोला और कार अंदर ली। हैडलाइट की रोशनी में मुझे वह शानदार विषधर दिखाई दिया। वह चमक देखकर वापस माँ के जमा किये असबाब में चला गया।
इधर माँ ने पानी में सोने को छुआ कर सोनेली तैयार की बिग्गेजी और गोगाजी से अनुरोध किया कि बाबा अपने इस प्रिय जीव को यहां से ले जाओ। अगली सुबह नागराज के बाहर जाने के चिन्ह दिखाई दिए।
कुछ दिन सब ठीक रहा। आज सुबह माँ ने मुझे बुला लिया। मैं आया तो देखा कि कोबरा सर वापस लौट आये हैं। अब वे उसी सामान के बीच आराम कर रहे हैं, जो माँ ने जमा किया है।
माँ हमको ये सामान हटाने नहीं देती है। हम इसे हटाना चाहते हैं। इस शीत खींचतान में कोबरा का आना माँ के पलड़े को हल्का करता है। इसलिए माँ बैकफुट पर आ जाती है। उनको ऐसे ढीला होते देखना मुझे अच्छा नहीं लगता। वे हमेशा रहें और मालिकाना अधिकार से रहें इसलिए मैं कहता हूँ- "माँ ओई जीव है बापड़ो। इरें कुण घर मोंडे है। बैठो है चार दिन। हापी जेई परो"
ये सुनकर माँ को आराम की लम्बी सांस आती है। कबाड़ हटने से बच गया लेकिन तुरंत चिंता होती है। "मरग्यो रे है तो भेवर।"
बुजुर्गों ने जो सीखा या उनसे हम जो सीखे वह सब खराब या असामयिक नहीं है। उनकी सीख में ये भी था कि आप चारपाई पर बैठें तो पांव नीचे न लटकाएं। नीचे हों तो उनको हिलाएं नहीं। पांव हिलाने पर वे बच्चों से कहते "पग मत हिला तेरी माँ रो पेट दूख ई।"
इसका मंतव्य था कि विषधर हिलते हुए पैर को कोई छोटा भोज्य जीव समझ सकता है। असल में हमारे शरीर से निकलने वाली ऊष्मा उनके थर्मल विजन में कैच हो जाती है। वे इंसान को काटना नहीं चाहते किन्तु हिलते हुए पैर को कुछ और समझ कर डस लेते हैं।
हर सीखना समय के साथ अनुपयोगी नहीं हुआ है। रेगिस्तान विषधरों का घर है इसलिए चारपाई पर पांव ऊपर रखकर बैठो।
अभी नागराज आराम कर रहे होंगे। गर्मी सुबह सुबह ही बहुत अधिक है। तस्वीर में उनके चलने से बने निशान से आप उनकी सेहत का अंदाजा लगा सकते हैं।