“ कालो थियुसै ” नाम का आकषर्ण जितना अधिक है उससे कहीं अधिक आकर्षित करती है इसकी भाषा और बिम्ब।किशोर चौधरी जिस तरह से अपनी ठेठ भाषा के साथ हर कथ्य में खड़े हैं वो नायाब है.छोट-छोटे सटीक वाक्य गहरी लम्बी बातों को समेटे हुए हैं।
“ज़िंदगी एक भ्रम है और इसके टूटे जाने तक इसे धोखा मत देना” अमित का जीवन,उसके सरोकार,उसकी लिखावट,उसकी ख्वाहिशें और उन सबसे जूझता अमित। लेखक ने अमित को पुनः जीवित कर दिया है सभी पाठकों के बीच। अंत में आँखों से आँसू ठीक वहीं टपकता है जहाँ लेखक ने इसे महसूस किया । अमित को पढ़कर बस अमित को जाना भर जा सकता है लेकिन वो महसूसना किसी को इतनी बारीकी से,ये लेखक की खूबी है । जिस दिन अमित को पढ़ा उस दिन कुछ भी और आगे पढ़ने कि इच्छा न हुई । वो दिन सिर्फ़ अमित का था ।
किशोर सही ही तो कहते हैं कि हम सब एक लट्टू की ही तरह तो हैं । कोई फ़र्क नहीं । एक दिन सबको लुढ़कना है । दुशु के साथ यात्रा में लेखक न सिर्फ़ पिता है बल्कि एक मित्र भी है और साथ ही स्वयं एक बच्चा भी जो अपने पिता के साथ किये गए साइकिल के सफ़र की मीठी व सहज स्मृतियों को भी साथ ही लेकर सफ़र पर निकला है । किशोर एक अच्छे यात्री हैं और यह पूरे तथ्यों एवं प्रमाणों के साथ कहा जा सकता है ।
“इसी साहस को महाभारत में धृतराष्ट्र कहा गया है” इस एक वाक्य में लेखक ने कितना कुछ कह दिया है।
किशोर चौधरी यदि सबसे अधिक कहीं दिखते हैं तो ‘शायद’ रेत में ही दिखते हैं । “रेत कहीं जाती नहीं,बस आती रहती है” ये आना ही ज़िंदगी है ।रेगिस्तान की माटी में रेत ही रेत है और वहाँ का जनजीवन किस तरह इससे प्रभावित है इस पर लेखक की पैनी नज़र चली है शब्दों के माध्यम से क्योंकि यहाँ लेखक रेत में ही जीता है और रेत में ही उसकी साँसे खुल कर साँस लेती है ।
हाँ सच है अभी बहुत कुछ कहना है आपको । बहुत जीना भी है ताकि साहित्य को और मिल सके इसलिए स्थगित करने होंगे सारे बेकार के काम ।
“बेलगाम बढ़ती हुई आबादी के बोझ तले दबे हुए हिंदुस्तान” ऐसे छोटे-छोटे सूक्ति परक वाक्यों ने अपनी गहरी चिंता दर्ज की है । पर्यावरण,बाजारीकरण की तरफ लेखक ने ध्यान खींचा है । इतिहास के माध्यम से उदहारण प्रस्तुत करना भी दुरूह कार्य है क्योंकि लेखक को सही जानकारी देने हेतु अच्छी मेहनत करनी पड़ती है । साँझ और रात के मिलन की घड़ी की तरह ही लेखक ने शब्दों और भावों को पिरोया है ।
“मुक्ति बहुत कठिन चीज़ है लेकिन मिल आसानी से जाती है । जैसे किसी पुरखे की राख को लाओ और उसे गंदले पानी में फेंक दो” पढ़कर गहरी वेदना महसूस की जा सकती है । हाँ यही तो है, होता है बस इतना भर ! किशोर एक भावुक ह्रदय लेखक हैं जिन्हें संबंधों के टूटने में मृत्यु सी महसूस होती है । ये दर्द बहुत गहरा है। किशोर स्वयं एक ज़हीन पाठक हैं और यही वजह है कि वो इतिहास,विज्ञान या कि मनो विज्ञान को बड़ी ही सावधानी एवं सतर्कता के साथ अध्ययन करते हैं ताकि पाठकों तक कोई भी तथ्य गलत न पँहुचे ।
किशोर कहीं भी स्त्री विमर्श का ज़िक्र नहीं करते बल्कि सीधे “ वह एक ऐसे परिवार के सुखों का कन्धा बनती है जिनमे उसका योगदान शून्य गिना जाता है ” कहकर अपनी बात रख देते हैं । चौबीस घंटे की नौकरी का भार भला कौन स्त्री नहीं समझती है।
“जब तक बंधन है,घुटन है तब तक चुड़ैल भी है” सामाजिक परिवेश पर इससे मुखर चोट क्या होगी ।
अपनी जन्म भूमि से प्रेम सदैव इंसान को इंसान बनाये रखता है । कितने ही रहस्य होते हैं जो कि सिर्फ़ वहाँ के स्थानीय ही जान पाते हैं । लोक कथाएँ इसीलिए सर्वथा सबसे अलग होती हैं । मन तो मन है क्या कीजे ! चाहना किसी के बस में नहीं ठीक वैसे ही जैसे न चाहना।
निश्चित ही किशोर ने अपने मन की बात ही कही है “एक ही जीवन में हम कई बार कितने ही लोगों के साथ जीते हैं और मर जाते हैं” । मन को पढ़ते वेदना का अहसास होता है । मन बेचैन है । क्या यही सच है । हाँ ! यही !
बचे रहने से जीवन फिर जिया जाता है इसलिए सबको बचा रहना चाहिए । बचा रहना उम्मीद है । विश्वास है । हौसला है । अंत में पुनः लेखक अपने गाँव लौट जाना चाहता है जहाँ उसे आने वाली पीढ़ी के लिए भी सामाजिक बदलाव चिन्हित करने होंगे । रिश्तों को बचाना होगा ताकि गाँव बचे रहें । भारतीयों के जींस में ही गाँव है इसलिए गाँवों के जीवन से ही संस्कृति भी सुरक्षित है ।
किशोर चौधरी को इससे पूर्व भी पढ़ा है । आपका गद्य जन-जन का गद्य है । नपे तुले सार्थक शब्दों के संयोजन के साथ कालो थियुसै निश्चित ही बेहतरीन कथेतर गद्य है. लेखक एवं प्रकाशक को इस पुस्तक के लिए खूब बधाई । आपका रचना संसार खूब रचे और सार्थक रचे यही शुभकामना है।