कलाई पर कान रखे लेटा हुआ था। धक-धक की आवाज़ सुनाई देने लगती है। मैं उसे थोड़ा अधिक ध्यान से सुनता हूँ। ये केवल रेल की आवाज़ भर नहीं है। ये आधी रात को बियाबाँ में भागती हुई रेल की आवाज़ है।
मैं इस रेल में सवार कहीं जा रहा हूँ।
रेल एक झटका खाकर रुकती है। जैसे कोई आपात स्थिति थी। मेरा बदन सीढ़ी से पैर चूकने के डर से सम्भलता हुआ ठहर जाता है।
भाप जैसे धुएं के बीच से आता हुआ मैं सफेद दिखाई देता हूँ। प्रतीक्षालय के अंधेरे की ओर बढ़ते हुए मेरा रंग श्याम होने लगता है। प्रतीक्षालय के चिकडोर के अन्दर सीलापन है। चुप्पी का जाल है।
मैं रेलवे स्टेशन से बहुत दूर निकल आया हूँ। सीधे सूने मार्ग पर तन्हाई पसरी है। अब मुझे पदचाप सुनाई पड़ती है। क्या ये मेरी पदचाप है या तुम मेरे पीछे चले आ रहे हो। मैं मुड़कर नहीं देखता।
सोचता हूँ इतनी दीवारें किसने बनाई है। ये रास्ते किनके गुज़रने से बने हैं। ये शाम का धुंधलका है या आधी रात की जादुई चमकीली स्याही।
धक-धक, धक। रेल फिर से चलने लगी है।
मैं उतर चुका हूँ। इसलिए ये वो रेल है जिसमें तुम हो। रेल धक-धक का मद्धम लय में गाना गाने लगती है। मैं चाहता हूँ कि दौड़ता हुआ इसमें चढ़ जाऊं। गलियारे में चलता हुआ तुमको खोज लूँ।
फिर हम दोनों रेल से उतरकर एक बैंच पर बैठे जाएंगे। दूर तक कोई न होगा। इस दुनिया की भीड़ का स्वप्न बहुत दूर छूट चुका होगा। रेल आवाज़ किए बिना चुपचाप चली जायेगी।