उसकी बातों का किसी भाषा में
अनुवाद नहीं किया जा सकता था।
इसलिए कि वे बातें किसी भाषा में लिखी नहीं जा सकती थी।
प्रेम को कैसे कोई लिख सकता है कि वह कैसा है। इसी तरह दुख को भी कैसे लिखा जा सकता है। उपस्थिति या अनुपस्थिति को कैसे लिखा जा सकता। कुछ भी नहीं लिखा जा सकता।
केवल एक ब्योरा दिया जा सकता है कि उसकी प्रेमिल आँखें चेहरे पर किस तरह टिकी थी। उन आँखों को इस तरह देखते हुये देखना कैसा था। उनको देखकर किस तरह मन भीग गया था। लेकिन शब्द और वाक्य अधूरे रह जाते हैं।
वे ठीक-ठीक नहीं लिख पाते कि किस तरह सीले बरस उन आँखों के देखने भर से गायब हो जाते हैं। किस तरह उन आँखों की झांक पूरे बदन में लहू भर जाती है। अतीत की खरोंचों के निशान झड़ने लगते हैं। जैसे कोई पेड़ नया हो रहा हो।
कोई कैसे किसी को कुछ कह सकता है कि तुमने कितना दुख दिया या कितना प्रेम किया। भाषा के पास अभी इतना नहीं है। अभिनय के पास भी नहीं। केवल बीते हुये कल के सामने आज रखकर कहा जा सकता है कि देखो तुम्हारे होने न होने से कितना कुछ बदल जाता है। लेकिन ठीक-ठीक ये नहीं कहा जा सकता कि तुम्हारा होना कितना है।
एक तुम ही नाउम्मीदवार थे। जिसके पास कोई ऐसी कोई उम्मीद न थी कि कुछ पा लेना है। जिसके पास केवल मन था, साथ होने का मन। उसी मन की बुनियाद पर तुम्हारी आँखें झांक पाती इतना प्रेमिल। यही कहा जा सकता है मगर शायद ये उतना ठीक नहीं है कि तुम्हारा देखना बस इतना भर नहीं है। ये इससे कहीं अधिक है।
कभी-कभी बारूद से पलीते बिछड़ जाते हैं। पलीता समझते हो न? वह जो आग को वहाँ तक पहुंचाए जहां पहुंचानी है। वह पलीता है। जैसे पटाखों में लगे होते हैं। पलीता न हो तो जीवन उदास बेढब पड़ा हुआ सड़ता रहता है। तो किसी का होना एक पलीता हो जाता है। वह जो हमें किसी शोरगर के बनाए अनार की तरह रंगीन रोशनी से भरकर बिखेर दे। वह जो हमारे दुखों में एक महाविस्फोट कर दे। ये सब लिखकर भी नहीं लिखा जा सकता कि किसी को महसूस करना कैसा होता है।
सुबह छः बजे से छत पर बैठा हूँ। हवा के झकोरे बार-बार मुझे छू रहे हैं। कभी कभी ये इतनी तेज़ है कि किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी को शरारत में हल्का धक्का दिया हो। और उसे मजबूती से थाम लिया हो। इसी तरह मैं भी सिहर कर वापस अपने पास लौट आता हूँ। देखता हूँ कि क्या लिख रहा हूँ। समझ रहा हूँ कि वह नहीं लिख पा रहा हूँ जो लिखना चाहता हूँ।
ये मेरा दोष नहीं है। ये भाषा की कमतरी भी नहीं है। लेकिन क्या किया जा सकता है कि कुछ भी ठीक वैसा नहीं लिखा जा सकता जैसा साथ होने पर महसूस होता है। जैसा हम अपने आगे पीछे झाँककर याद कर पाते हैं।
मैं अगर कहूँ कि तुमको बाहों में भर लिया है। मेरी नाक तुम्हारे गालों को छू रही है। तो इसे सुन-कह कर जो होता है, वह कैसे भी नहीं लिखा जा सकता।
लिखने की कोशिश करना बेकार का काम है। मगर मेरी फितरत ऐसी है कि लिखकर थोड़ा सा आसान हो जाता हूँ तो लिखता रहता हूँ। इस लिखने को दरकिनार ही रखना।
शुक्रिया।
* * *
अनुवाद नहीं किया जा सकता था।
इसलिए कि वे बातें किसी भाषा में लिखी नहीं जा सकती थी।
प्रेम को कैसे कोई लिख सकता है कि वह कैसा है। इसी तरह दुख को भी कैसे लिखा जा सकता है। उपस्थिति या अनुपस्थिति को कैसे लिखा जा सकता। कुछ भी नहीं लिखा जा सकता।
केवल एक ब्योरा दिया जा सकता है कि उसकी प्रेमिल आँखें चेहरे पर किस तरह टिकी थी। उन आँखों को इस तरह देखते हुये देखना कैसा था। उनको देखकर किस तरह मन भीग गया था। लेकिन शब्द और वाक्य अधूरे रह जाते हैं।
वे ठीक-ठीक नहीं लिख पाते कि किस तरह सीले बरस उन आँखों के देखने भर से गायब हो जाते हैं। किस तरह उन आँखों की झांक पूरे बदन में लहू भर जाती है। अतीत की खरोंचों के निशान झड़ने लगते हैं। जैसे कोई पेड़ नया हो रहा हो।
कोई कैसे किसी को कुछ कह सकता है कि तुमने कितना दुख दिया या कितना प्रेम किया। भाषा के पास अभी इतना नहीं है। अभिनय के पास भी नहीं। केवल बीते हुये कल के सामने आज रखकर कहा जा सकता है कि देखो तुम्हारे होने न होने से कितना कुछ बदल जाता है। लेकिन ठीक-ठीक ये नहीं कहा जा सकता कि तुम्हारा होना कितना है।
एक तुम ही नाउम्मीदवार थे। जिसके पास कोई ऐसी कोई उम्मीद न थी कि कुछ पा लेना है। जिसके पास केवल मन था, साथ होने का मन। उसी मन की बुनियाद पर तुम्हारी आँखें झांक पाती इतना प्रेमिल। यही कहा जा सकता है मगर शायद ये उतना ठीक नहीं है कि तुम्हारा देखना बस इतना भर नहीं है। ये इससे कहीं अधिक है।
कभी-कभी बारूद से पलीते बिछड़ जाते हैं। पलीता समझते हो न? वह जो आग को वहाँ तक पहुंचाए जहां पहुंचानी है। वह पलीता है। जैसे पटाखों में लगे होते हैं। पलीता न हो तो जीवन उदास बेढब पड़ा हुआ सड़ता रहता है। तो किसी का होना एक पलीता हो जाता है। वह जो हमें किसी शोरगर के बनाए अनार की तरह रंगीन रोशनी से भरकर बिखेर दे। वह जो हमारे दुखों में एक महाविस्फोट कर दे। ये सब लिखकर भी नहीं लिखा जा सकता कि किसी को महसूस करना कैसा होता है।
सुबह छः बजे से छत पर बैठा हूँ। हवा के झकोरे बार-बार मुझे छू रहे हैं। कभी कभी ये इतनी तेज़ है कि किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी को शरारत में हल्का धक्का दिया हो। और उसे मजबूती से थाम लिया हो। इसी तरह मैं भी सिहर कर वापस अपने पास लौट आता हूँ। देखता हूँ कि क्या लिख रहा हूँ। समझ रहा हूँ कि वह नहीं लिख पा रहा हूँ जो लिखना चाहता हूँ।
ये मेरा दोष नहीं है। ये भाषा की कमतरी भी नहीं है। लेकिन क्या किया जा सकता है कि कुछ भी ठीक वैसा नहीं लिखा जा सकता जैसा साथ होने पर महसूस होता है। जैसा हम अपने आगे पीछे झाँककर याद कर पाते हैं।
मैं अगर कहूँ कि तुमको बाहों में भर लिया है। मेरी नाक तुम्हारे गालों को छू रही है। तो इसे सुन-कह कर जो होता है, वह कैसे भी नहीं लिखा जा सकता।
लिखने की कोशिश करना बेकार का काम है। मगर मेरी फितरत ऐसी है कि लिखकर थोड़ा सा आसान हो जाता हूँ तो लिखता रहता हूँ। इस लिखने को दरकिनार ही रखना।
शुक्रिया।
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