तट तट तट
बारिश की बूंदें दिखी नहीं मगर एक ख़ुशबू आई। बारिश के आने से पहले उसकी ख़ुशबू। फिर देर तक बिजलियाँ कड़कीं और पानी बरसता रहा। बेमौसम। अगले रोज़ कान बजने लगे। एक दीर्घ शोक में डूबी हुई बहुत दूर से आती आवाज़ जैसी हवा। खिड़की खोली। दरवाज़ा खोला। बाहर आया मगर चैत्र की शुरुआती आंधियों के निशान गायब थे। दोपहर होते हवा तेज़ बहने लगी। हर दीवार, हर मोड़ और हर दरख़्त से कट कर आती हवा में वही गीत था। तनहाई का गीत।
कभी जब बेमन बारिश में भीग जाते हैं तब कैसा लगता है। कपड़े की छुअन भर से अजीब सा हाल होने लगता है। बदन से अपने टी को दूर रखे रहने की नाकाम कोशिश। जींस के भीगेपन से बचने की कोशिश। लेकिन सब नाकाम। ऐसा ही हाल था। चमकीली पन्नियों से नीली-पीली बेढब कंचों सी छोटी गोलियां निकालता और उदास आँखों से देखता हुआ निगल लेता। वे उदास आँखें घड़ी भर बाद सूनी आँखों में बदल जाती। सिर वैसा ही हो जाता जैसा बेमन भीगे कपड़ों से असहज बदन होता है।
माइक्रोफोन का फेडर खोला और सोचने लगा कि मुझे क्या बोलना है। बरसों से उच्चरित शब्द भूल के खाने में चले गए। वाक्य अधूरे और गुंजलक हो गए। जैसे कि उनका कोई अर्थ ही न हो। जैसे कोई बच्चा कुछ कहते हुये अचानक रुक कर सोचने लगा। जैसे औचक एक ख़याल पानी के भंवर की तरह आया और मैं उसके साथ घूमने लगा।
मैं स्टुडियो से कब बाहर आया याद न था। ये याद आया कि मुंह अधखुला है और मैं कबूतरों को देख रहा हूँ। फिर याद आया कि कहाँ बैठा हूँ। फिर खुद को याद दिलाया कि ये वही चमकीली पन्नियों में भरा रसायन है। आह! ये सुख भी तो है।
तो जब बारिश न आई थी तब कैसे लगा कि बारिश की ख़ुशबू है। जब साँय- साँय बजती हवा न थी तब कैसे सुनी उसकी आवाज़। जब उदासी न थी तो कैसे नीम की सूखी पत्तियों की तरह शब्द कागज़ पर गिरने लगे।
नींद उचट जाती थी। नीम नींद में समय का अनुमान लगाता। इसलिए नहीं कि जागकर कुछ काम करना होता था। इसलिए कि दिल धडक जाता था कि अभी तक अगर सुबह नहीं हुई है तो तो कैसे होगा। इस वक़्त मैं कहाँ जा सकूँगा।
एक बार साढ़े तीन बजे थे। बेहद घबराहट हुई। अब क्या करूँ? दो करवट बदलते ही नींद आ गयी। फिर आँख खुली तो डरते हुये दीवार घड़ी को देखा। छः बज रहे थे। कितने अजीब डर हैं। जाग जाने के डर। फिर ये हुआ कि बहुत महीनों बाद देर से जागा। सुबह के पौने सात बजे थे। देर तक मुस्कुराया।
मैं कभी नहीं समझ पाया कि मैं हूँ क्या? किस चीज़ से बना हूँ। क्या मुझे इस तरह निरर्थक भय से भर देता है। वे कैसी बातें हैं, जो मुझे सुनाई नहीं देती लेकिन मैं उनके कारण बिखरने लगता हूँ।
रात को सोने के समय सामने की दीवार देखता हूँ। लकड़ी की लम्बी अलमिरा के ऊपर एक छोटा हवाई जहाज रखा है। वैसा जैसा पाठ्य पुस्तकों में पहले-पहल वाले हवाई जहाज को देखा था। वह धीरे-धीरे दिखना बंद होने लगता है। सिर पर कोई ठंडी हवा का पंखा झलता है। आँखें मुँदने लगी हैं। मैं सोचता हूँ कि सुबह की ओर जा रहा हूँ। हाँ सुबह की ओर।
चश्मे की कमानी अंगुलियों में फंसी रहती है। एक झपकी के साथ डर जाता हूँ कि चश्मा गिर गया है। लेकिन वह वहीं होता है अंगुलियों में फंसा हुआ।
लरज़िश भरे हाथ से चश्मा पलंग के नीचे रख देता। उतना भीतर कि भूल से भी कोई उसे छू न पाये।
मैं चश्मे की तरह ही ख़ुद को भी रख देना चाहता हूँ।
वहीं।
* * *
बारिश की बूंदें दिखी नहीं मगर एक ख़ुशबू आई। बारिश के आने से पहले उसकी ख़ुशबू। फिर देर तक बिजलियाँ कड़कीं और पानी बरसता रहा। बेमौसम। अगले रोज़ कान बजने लगे। एक दीर्घ शोक में डूबी हुई बहुत दूर से आती आवाज़ जैसी हवा। खिड़की खोली। दरवाज़ा खोला। बाहर आया मगर चैत्र की शुरुआती आंधियों के निशान गायब थे। दोपहर होते हवा तेज़ बहने लगी। हर दीवार, हर मोड़ और हर दरख़्त से कट कर आती हवा में वही गीत था। तनहाई का गीत।
कभी जब बेमन बारिश में भीग जाते हैं तब कैसा लगता है। कपड़े की छुअन भर से अजीब सा हाल होने लगता है। बदन से अपने टी को दूर रखे रहने की नाकाम कोशिश। जींस के भीगेपन से बचने की कोशिश। लेकिन सब नाकाम। ऐसा ही हाल था। चमकीली पन्नियों से नीली-पीली बेढब कंचों सी छोटी गोलियां निकालता और उदास आँखों से देखता हुआ निगल लेता। वे उदास आँखें घड़ी भर बाद सूनी आँखों में बदल जाती। सिर वैसा ही हो जाता जैसा बेमन भीगे कपड़ों से असहज बदन होता है।
माइक्रोफोन का फेडर खोला और सोचने लगा कि मुझे क्या बोलना है। बरसों से उच्चरित शब्द भूल के खाने में चले गए। वाक्य अधूरे और गुंजलक हो गए। जैसे कि उनका कोई अर्थ ही न हो। जैसे कोई बच्चा कुछ कहते हुये अचानक रुक कर सोचने लगा। जैसे औचक एक ख़याल पानी के भंवर की तरह आया और मैं उसके साथ घूमने लगा।
मैं स्टुडियो से कब बाहर आया याद न था। ये याद आया कि मुंह अधखुला है और मैं कबूतरों को देख रहा हूँ। फिर याद आया कि कहाँ बैठा हूँ। फिर खुद को याद दिलाया कि ये वही चमकीली पन्नियों में भरा रसायन है। आह! ये सुख भी तो है।
तो जब बारिश न आई थी तब कैसे लगा कि बारिश की ख़ुशबू है। जब साँय- साँय बजती हवा न थी तब कैसे सुनी उसकी आवाज़। जब उदासी न थी तो कैसे नीम की सूखी पत्तियों की तरह शब्द कागज़ पर गिरने लगे।
नींद उचट जाती थी। नीम नींद में समय का अनुमान लगाता। इसलिए नहीं कि जागकर कुछ काम करना होता था। इसलिए कि दिल धडक जाता था कि अभी तक अगर सुबह नहीं हुई है तो तो कैसे होगा। इस वक़्त मैं कहाँ जा सकूँगा।
एक बार साढ़े तीन बजे थे। बेहद घबराहट हुई। अब क्या करूँ? दो करवट बदलते ही नींद आ गयी। फिर आँख खुली तो डरते हुये दीवार घड़ी को देखा। छः बज रहे थे। कितने अजीब डर हैं। जाग जाने के डर। फिर ये हुआ कि बहुत महीनों बाद देर से जागा। सुबह के पौने सात बजे थे। देर तक मुस्कुराया।
मैं कभी नहीं समझ पाया कि मैं हूँ क्या? किस चीज़ से बना हूँ। क्या मुझे इस तरह निरर्थक भय से भर देता है। वे कैसी बातें हैं, जो मुझे सुनाई नहीं देती लेकिन मैं उनके कारण बिखरने लगता हूँ।
रात को सोने के समय सामने की दीवार देखता हूँ। लकड़ी की लम्बी अलमिरा के ऊपर एक छोटा हवाई जहाज रखा है। वैसा जैसा पाठ्य पुस्तकों में पहले-पहल वाले हवाई जहाज को देखा था। वह धीरे-धीरे दिखना बंद होने लगता है। सिर पर कोई ठंडी हवा का पंखा झलता है। आँखें मुँदने लगी हैं। मैं सोचता हूँ कि सुबह की ओर जा रहा हूँ। हाँ सुबह की ओर।
चश्मे की कमानी अंगुलियों में फंसी रहती है। एक झपकी के साथ डर जाता हूँ कि चश्मा गिर गया है। लेकिन वह वहीं होता है अंगुलियों में फंसा हुआ।
लरज़िश भरे हाथ से चश्मा पलंग के नीचे रख देता। उतना भीतर कि भूल से भी कोई उसे छू न पाये।
मैं चश्मे की तरह ही ख़ुद को भी रख देना चाहता हूँ।
वहीं।
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