एक रोज़ कोई कोंपल खिली जैसे नज़र फेरते ही किसी ने बटुआ पार कर लिया हो। एक रोज़ उससे मिला। फिर उससे ऐसे बिछड़ा जैसे खाली बटुए को किसी ने उदासी में छोड़ दिया। एक रोज़ मालूम हुआ कि बटुआ नहीं चाहिए था, उसी को चुराना था, जिसका बटुआ था। एक रोज़ कोई पत्ता दूजे पत्ते के पास इतनी शांति और चुप्पी के साथ गिरा कि आंखें हैरत से भर गई। मैं अक्सर सोचता हूँ कि हम दो सूखे पत्ते नम मिट्टी में दबे पड़े हैं। हम कभी-कभी मिट्टी से बाहर झांकते हैं और मौसम देखकर दोबारा एक साथ दुबक जाते हैं।
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]