रेत में नाव बही जा रही थी। हतप्रभ डॉक्टर देख रहा था। उसने कहा- "मैं विश्वास नहीं कर सकता कि रेत में नाव बह रही है"
मैंने कहा- "सही कह रहे हो"
हवा का बहाव तेज़ होते ही नाव भी तेज़ हो जाती। डॉक्टर ने एक बार मुझे छूकर देखा। शायद वह जानना चाह रहा था कि ये कोई भ्रम तो नहीं है।
"क्या ये नाव वहां तक जा सकती है?" डॉक्टर ने पूछा।
मैंने कहा- "ये नाव तभी कहीं जाती है जब प्रेम हो"
डॉक्टर ने कहा- "हाँ मुझे बहुत प्रेम है।"
इसके बाद डॉक्टर ने अपने प्रेम के बारे में बताया तो मैं सोचने लगा। मुझे सोचते देखकर डॉक्टर चिंतित हुआ। उसने बेसब्र होकर पूछ लिया "क्या ये नाव वहां तक नहीं जा सकती"
मैंने कहा- "जो कोई भी प्रेम करता है, वह इस नाव से अपने प्रेम तक जा सकता है लेकिन..."
"लेकिन क्या..."
"माँ तक नहीं जाया जा सकता। कि माँ कहीं दूर नहीं हो सकती। माँ तक जाने के लिए नाव से उतरना पड़ता है।"
"तुम उतरे हो कभी?" डॉक्टर ने पूछा।
मैंने कहा- "हाँ। मैं अपनी दुनिया से भरी नाव से उतर जाता हूँ तब मुझे माँ सामने खड़ी मिलती है।"
डॉक्टर कुछ सोच रहा था तभी मैंने उससे कहा- "बीमार मैं हूँ, मेरे बारे में सोचो।"
अचानक डॉक्टर ने स्टेथोस्कोप एक तरफ रखा और वह नाव से उतर गया। रेत के झकोरों ने उसे घेर लिया। वह बुदबुदाया। "ये रेत ही उड़ी जा रही है, हम कहीं नहीं जा रहे।"
रेत के झौंके के गुज़रते ही मैंने देखा कि डॉक्टर मुस्कुरा रहा था। मैंने पूछा- "माँ दिखी" डॉक्टर ने कहा- "हाँ"
एक सफेद तितली रेत को चूमती उड़ी जा रही थी।