मैं अपनी हंसती हुई एक तस्वीर पोस्ट करके ग़मज़दा हो जाता हूँ। चलचित्र की भांति सैंकड़ों तस्वीरें मेरे सामने से गुज़रने लगती हैं। मैं अपनी तस्वीर पर शर्मिंदा होने लगता हूँ।
प्रसव के घण्टे भर बाद मीलों पैदल चलती माँ की तस्वीर। लँगड़ा कर चलते-चलते बैठ गए बच्चे की तस्वीर। उदासी और क्षोभ से भरे युवाओं के गले से रिसती आवाज़ों की तस्वीर। सड़क किनारे मोबाइल पर बात करते रोते हुए अधेड़ की तस्वीर। मुंबई से चलकर अयोध्या जाते तीन दृष्टिहीन वरिष्ठ नागरिकों की तस्वीर। घर लौटते हुए सायकिल सहित सड़क पर कुचल गए आदमी की तस्वीर।
तस्वीरों का चलचित्र भयावह है। मैं बेचैन होकर आंखें बंद कर लेना चाहता हूँ।
ग़रीब ख़ुद को घसीटकर घर ले जा रहा है। एक श्वान दूर देश से हवाई जहाज में आया है। उसका ऑफिशियल स्वागत किया जा रहा है।
जुए के एक तरफ बैल दूजी तरफ एक आदमी है। वे मिलकर एक लंगड़ाती बैल गाड़ी को खींच रहे हैं। ग़रीब परिवार को एक बैल बेचना पड़ गया है। एक किशोरवय लड़का बैल की जगह जुत गया है। इस परिवार को जाने कब बचा हुआ बैल भी बेचना पड़ सकता है।
घर कितने दूर हो गए हैं।
मैं लॉक डाउन में अविराम ड्यूटी कर रहा हूँ। मुझे कोई तकलीफ नहीं है। मुझे स्क्रिप्ट लिखनी है। उसे रेडियो पर बोलना है। कुछ रिकॉर्डिंग्स करनी है। बस। मैं खाना खाकर जाता हूँ और लौटकर खा लेता हूँ।
इसके बाद भी अजीब सा लगता था। पहले पच्चीस दिन घर आने पर पत्नी और बच्चों से अलग रहता था। मुझे लगता था कि लड़ाई ज़ोर से चल रही है। मैं दफ्तर में अक्सर धूप में अकेला खड़ा हुआ सूखे पत्तों को देखता हुआ मुस्कुराता था। कभी कुछ लिख लेता था। अब शिथिल हो गया हूँ। मजदूर चले जा रहे हैं।
औरोन तामाशी की कहानी का पहला ही पैरा दिल पर दस्तक देता रहता है।
"अत्तिल्ला के हूणों का ठेठ वंशधर। इतालवी बंदी शिविरों में तीन साल बिता कर वह वापस घर लौट रहा था। मोड़ पर पहुँचते ही अचानक ठिठक कर खड़ा हो गया। उसके सामने गाँव फैला पड़ा था। आँखों ही आँखों में जैसे समूचा दृश्य लुढ़क कर उसके दिमाग में समा गया, सिर्फ गिरजाघर की मीनार बाहर रह गयी थी। उसकी आँखों के कोनों में आंसू तिर आये। अपनी झोंपड़ी के पिछवाड़े पहुँच कर वह रुका। किसी तरह फेंस पर चढ़ कर आँगन में कूद गया। कूदते ही बोला, मेरी झोंपड़ी।"