"पूअर कनेक्शन बहुत गड़बड़ करते हैं।"
मां ने कहा "कनेक्शन तो सई होणा ई चाइजे"
"बस-कार में उल्टी होने का कारण सही कनेक्शन नहीं होना ही है।"
मां ने अचरज से कहा "हवे!"
मैंने उनको पढ़ी-सुनी जानकारी दी। "हमारी आंख जो देखती है, कान जो सुनते हैं, पेट जो निर्जलीकरण से बचना चाहता है। वे अपने संदेश दिमाग तक भेजते हैं। खराब कनेक्शन के कारण सूचनाएं गड़बड़ी पैदा करती है। और उल्टी पर उल्टी"
मां ने कहा "रेल सही। रेल में टिकट कर दे" मां का टिकट कुछ दिन बाद का रिजर्व हो पाया। जयपुर पहुंचकर सुबह कार से घर आते समय मां सामान्य रही।
उनको डर तो था मगर खुली हवा थी। सड़कें खाली होने के कारण तेज़ गति से सामने से आने वाली या पीछे से आगे निकलने वाली गाड़ियां नहीं थी। एक दिशा में चलने का आभास था। इसलिए भीड़ में होने वाला दिग्भ्रम नहीं बना। हम आराम से घर आ गए। मां को उल्टी नहीं आई।
मोशन सिकनेस से पीड़ित व्यक्ति जब कार, बस आदि से उतरता है तो उसे जो राहत मिलती है, उसका बयान नहीं किया जा सकता।
मां को थोड़ा डर लिफ्ट का भी था लेकिन सात माले में समय नहीं लगता। घर का दरवाज़ा खुलते ही मां ने एक लम्बी सांस ली। "एक पुर लोंबी सा आई"
अगली सुबह तक सब सामान्य हो गया। मां मुग़ल ए आज़म के चिंतित शहंशाह अकबर की तरह अपने दोनों हाथ कमर पर बांधे हुए घर के तीन कमरों और हाल का जायजा ले रही थी।
सुबह के नौ बज चुके थे। पोता आधा उल्टा लेटा हुआ था। मां ने उसे इस तरह देखा जैसे कोई सिपाही अकर्मण्य हो चुका है। किंतु इस बात पर प्यार आया कि सिपाही अपना ही है।
दूसरे कमरे में बिस्तर पर इधर-उधर बिखरी किताबों, औंधे पड़े मोबाइल, आधा नीचे लटक रहे गले वाले तकिए के बीच पोती सोई हुई थी। मां की भृकुटी तनी मगर मन ही मन माफ़ करते हुए, वे अपने कमरे की खिड़की की ओर चली गई।
मिनट भर बाद वे कमरे से टहलती हुई हाल में आई। जीवन के प्रति गहन चिंतन, योजना और कार्यवाही के नितांत अभाव को महसूस किया। उन्होंने अकेले में पीछे हाथ बांधे चलते हुए पृथ्वीराज कपूर की तरह हम्म का हल्का मगर गहरा उच्चारण किया।
बादशाह सलामत थोड़ी देर बाद आराम में आ गए। उन्होंने चिंताओं को दरकिनार किया। लंच करके सो गए।
दो दिन ठीक बीते मगर फिर भी कार रूपी दैत्य प्रतीक्षा में था। मैंने कहा "मां। महेंदर रे घरे जाण सारू हाथी होवतो तो कैड़ी ठेयति?"
मां ने दूरी और समय को यात्रा से विलग करते हुए कहा "अगे ऊंट माथे जावता ई हा। हमें हेंगों रे तकड़ हुई है"
महेंद्र के यहां जाने की खुशी में मां ने कार को बरदाश्त किया। मिलकर वापस आते समय आधे रास्ते में तबियत खराब होने लगी।
जेएलएन मार्ग पर मैंने कहा "एक मोड़ आते ही दिल्ली हाइवे फिर अपन घर समझो"
हाइवे पर आते ही मां ने देखा ठेले वालों की कतार, पिंजरों में बंद मुर्गे, मछलियों की बिक्री के पोस्टर, सफाई वालों के मिनी ट्रक असहनीय दुर्गंध और दो तरफ लंबी दीवारें। उन्होंने पूछा "बो हाइवे कद आई"
मैंने कहा "ये दिल्ली हाइवे ही है"
इतना कहते ही मां ने अपना हाथ अंतिम चेतावनी की तरह उठाया और कहा रोक। मां को उल्टियां शुरू।
मोशन सिकनेस से बचने के लिए पेट में पर्याप्त पानी होने की सलाह चिकित्सक देते हैं किंतु उल्टी करने वाला पानी से डरता है कि पानी पिया तो और उल्टी आएगी। ये डर इस कष्ट को और बढ़ा देता है।
हिम्मत बंधा कर और लगभग हो हल्ला करके मां को गाड़ी में बिठाया। मां ने सीट पर बैठते ही कहा "मेरे छोरों ने फ़ोन कर'अन को, थोंरी मां ने जो लो"
मां की भाई से बात करवाई ताकि मां का ध्यान कहीं और लगे। भाई ने फ़ोन पर वादा किया। "मां हमके दो घोड़ा लें हो रा। पछे आपों दो ई मेंदर कने हाल हों"
अगले दिन जयपुर से उकताई मां ने बाड़मेर जाने की घोषणा कर दी। उनका कहना था कि फ्लैट कोई रहने की जगह है। चिड़ियाघर के पक्षियों की तरह बालकनियों के आगे लगी जाली से बाहर झांकते रहो। न कोई हथाई, न कोई राम राम।