नग्न-अर्धनग्न तस्वीरों से लोग जा चुके हैं। उनके होने की छाया भर बची है। निष्प्राण, अविचल छाया को देखकर अंधेरा अधिक घना होता प्रतीत होता है।
एक नीम सियाह लंबे कमरे में दीवार पर तस्वीरें बिना किसी सिलसिले के चिपकी हुई है।
वैसे एक सलीका होना चहिए था कि बरस दर बरस देह के बदलते रूप के क्रम में उनको टांगा जा सकता था। मगर ऐसा नहीं था। ये तस्वीरें किसी स्मृति की तरह टंगी थी, जैसे कि भूला जा चुका हो, कब कौन जीवन में आया था। सिलसिले से कुछ याद न रहा हो। बस उनके आने और चले जाने की याद बची हो। ऐसे ही तस्वीरें टंगी थी।
उन तस्वीरों को किसी कला समीक्षक की तरह देर तक डिटेलिंग के साथ देखना एक दुख था। कि तस्वीरों में उपस्थित देह को तस्वीर लिए जाने के दिनों में और अधबुझी शामों में भी एक भरे उजास में देखा जाना था किंतु वे क्षण द्रुत संयोग के साक्षी होकर विदा हो गए।
ये व्यक्ति के अधैर्य को चिढ़ाती हुई तस्वीरें थी। बहुत चुप तस्वीरें जैसे कहती हों। तुम वह सब नहीं जी पाए जो तुमको सौंप दिया गया था। इसलिए इस देह पर केंचुए की तरह तुम्हारी स्मृति को रेंगने की अनुमति नहीं है। उस स्मृति को पोंछ दिया गया है। अपने एकांत में भी उन क्षणों को नितांत अनुपस्थित समझा जाए।
उन तस्वीरों को देखने वाला कोई नहीं था। कि प्रेमी और मनोरोगी अवसाद के आसव की खोज में किन्हीं और अंधेरों में भटक रहे होते। किसी नए व्यक्ति की छिछली छांव भर के लिए, मीलों लंबी कल्पनाएं करते। संबंधों की गति बहुत अनिश्चित होती। इसलिए अपनी कल्पनाओं के धागों में उलझे हुए किसी कोने में जा गिरते।
इसके बाद एक और तस्वीर बनती। व्यग्र, उद्वेलित और अशांत व्यक्ति की तस्वीर। अपने आप से दूर भागते हुए व्यक्ति की। इस तस्वीर को अगर उन नग्न तस्वीरों के साथ टांग दिया जाता तो ये बहुत अर्थपूर्ण हो सकता था।
बहुत अंधेरा, बहुत प्रेम में होता है या बहुत भय में भी हो सकता है। इसलिए तस्वीरें सियाह नहीं होती। उनमें कुछ प्रकाश छूट ही जाता है। कि वे न तो प्रेम हैं, न भय। वे बस हैं।
मगर किसलिए है, नहीं मालूम।