कभी अचानक मैं बरसों पीछे के मौसम के दृश्य को स्थिर पानी को छूने की तरह छू देता हूं। कि तसवीर में ठहरे हुए लोगों, पेड़ पौधों और रास्तों को पार करके अनगिनत स्मृतियां सामने आ खड़ी होती हैं।
एक ठहरी हुई किंतु सुस्मृत तसवीर में बहुत कुछ सजीव बचा होता है। मैं किसी भूले हुए व्यक्ति की तरह उन सब को पहचानने की कोशिश करता हूं। लेकिन लगता है लोग नीम अंधेरे में हैं। उनको साफ पहचानना कठिन है। वे जो कुछ कह रहे हैं, उसे भी साफ सुना नहीं जा सकता। बस उनके धुंधले चेहरे को पढ़ने की कोशिश की जा सकती है।
वह तसवीर, जिसमें हम किसी के साथ बैठे हैं। उसे देखते हुए हम तसवीर के अतिरिक्त कितना कुछ देखने लगते हैं। अनवरत बहुत बरस पहले बीत चुके समय में चहलकदमी करने लगते हैं। जबकि तसवीर को देखने से पहले इस खयाल में रहते हैं कि कितना अच्छा है, हम सबकुछ भूल चुके हैं। अब वह एक बीती बात हो चुकी।
कल मैंने एक तसवीर को खोजना चाहा। क्या तसवीर के साथ खुद को खोजा जा सकता था। क्या फिर से प्रतीक्षा, शिकवों और खोए हुए दिनों में लौटा जा सकता था। क्या सचमुच हम कभी लौटना चाहते हैं? शायद नहीं।
पुरानी तसवीर की स्मृति में, मैं देख रहा था कि उस बरस ये पौधा यहां नहीं लगा था। इस रुग्मिनी पर गुलाबी से थोड़े अलग रंग के फूल खिले थे। उन्हीं की छांव से एक नन्ही चिड़िया उड़कर भरी दोपहर के उजास में गुम हो गई। फूल थे, चिड़िया थी। लेकिन अब फूल है, चिड़िया नहीं है।
इसी तरह प्रेम, स्मृति में क़ैद क्षणांश है। किसी तसवीर को खोजना प्रेम को याद करने जैसा है।
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एक तसवीर, जो कल ली थी।