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कलकत्ते वाली

 ये काली माता का मंदिर है।


इसके पास पहली बार असल का धोबीघाट देखा। रेगिस्तान के आदमी के लिए ये सोचना ही कठिन है कि कोई पानी में पैर रखकर खड़ा है। वह पानी से भीगे कपड़े को पटक पटक कर धो रहा है। 

हमारे लिए पानी और कपड़ा अनमोल है। इनके साथ हमारा सम्बन्ध बहुत आत्मीय है। पीढ़ियों से अपने कपड़े खुद धोने की परंपरा है। दादा का याद नहीं किन्तु बड़े पिताजी और उनके सब भाई अपने कपड़े खुद धोते रहे हैं। ये मुझे हमेशा सुंदर लगा। ये लोग इस कारण और अधिक सुंदर लगे। 

अब हम शहर में रहते हैं। मशीन में कपड़ा और तरल साबुन डाल देते हैं। पानी का नल लगा ही रहता है। कपड़े आधे घंटे में धुल जाते हैं। मशीन आवाज़ देकर बुला लेती है। अपने कपड़े ले जाओ और सुखा दो। 

पानी की निकासी अदृश्य है। माने हमको दिखता नहीं है कि कितना पानी बह गया है। मगर दिल को महसूस होता रहता है। 

ये मंदिर धोबीघाट के ठीक पास बना हुआ है। काली माता मुझे सम्मोहित करती रही है। असल में तांत्रिक और पारलौकिक विचार मेरे आलस्य और चमत्कार की आशा का पोषण करते हैं। 

काली कलकत्ते वाली तेरा वचन न जाए खाली। सब तमाशागरों का प्रिय वाक्य होता होगा। अगर नहीं भी होता है तो भी मेरे बचपन में बहुत लोकप्रिय था।

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