अविनाशी प्रेम
वेन यू लव डीपली, यू फील डीपली।
बचपन से अब तक कितने ही ऐसे स्त्री-पुरुष निरंतर दिखते रहे हैं। जो अनमने, चुप, उदासीन और अचानक उग्र हो जाने स्वभाव के थे।
अपनी सुध खोए हुए जीये जाते थे। कुछ एक अकेले बात करते थे, कुछ किसी को कोसते रहते थे। कुछ एक व्यर्थ का कूड़ा क़ीमती सामान की तरह अपनी पीठ पर लादे हुए घूमते थे। उनकी बातें किसी को समझ नहीं आती थी। उनमें से कुछ कभी-कभी पत्थर फेंकते थे।
हम में से कोई ठीक-ठीक नहीं जानता कि उनके साथ हुआ क्या था? क्या वे किसी धोखे से दीवाने हो गए या फिर कोई बेशक़ीमती शै खो गई और अचानक हुई कमी ने उनको ऐसा बना दिया था।
विक्षिप्त व्यक्तियों की कथा का आरम्भ कहाँ से होता था, ये कौन जान सकता था। लेकिन इतना तय था कि उनका भरोसा भरभरा कर ढह गया था। वे जिस बुनियाद पर जीवन को देखते थे, वह अचानक पृथ्वी के तल में समा गई थी।
बचपन में ही सुन लिया था कि प्रेम में लोग पागल हो जाते हैं। पागल होना का हिंदी शब्द अधिक गहरा है, विक्षिप्त हो जाना। हमारी बोलचाल की भाषा में इस शब्द को न्यूनतम स्थान मिला है। इसलिए कि इस शब्द से एक भय उत्पन्न होता है। मैं इस शब्द से इतना बचता रहा हूँ कि स्मृत नहीं होता कभी इसका प्रयोग अपने लेखन में किया हो।
मुझे लगता है अनुभूतियों से भरे प्रत्येक व्यक्ति का पाँव कभी न कभी फिसलता है और वह उदासी के गड्ढे में जा गिरता है। चुप रहने लगता है, आँसू बहाता है। एक भयावह घटाटोप में घिर जाता है, जिसमें केवल आशंकाओं का अँधेरा होता है। उसे कोई आशा दिखाई नहीं देती।
कुछ लोग समय के साथ इस से उबर जाते हैं किंतु अधिकांश इस घाव को अंतिम सांस तक सहन करते हैं। इस पीड़ा का कोई ठीक बयान नहीं होता। इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती। ये सब एक न टलने वाली नियति की भाँति ठहर जाता है।
प्रेम की अनेक दारुण कथाएं हैं। अनेक महाकाव्य हैं। वे सब असमाप्य हैं। उनका विस्तार असीमित हैं। उनका कहा गया दुख, अनकहे दुख के आगे लघु है।
उदासी हमको घेर लेती है। कभी हम स्वयं उदासी का चारा बनकर उपस्थित हो जाते हैं। क्या सचमुच हम अपनी इच्छा से उपस्थित होते हैं अथवा हम इतने कोमल होते हैं कि उदासी के पदचाप सुनकर समर्पण कर देते हैं।
कुछ ठीक कहना कठिन है।
प्रेम कथाओं में समाज बड़ी बाधा के रूप में रहा है। उसमें आरोप, आत्मसम्मान, दुख, बिछोह और उपसंहार में मृत्यु ने स्थाई स्थान बनाए रखा। किंतु इन कथाओं में एक समय दोनों पात्र गहरे और समतुल्य प्रेम में रहे। आगे की कहानी में कोई बाधा खड़ी हुई और कथा ने अपना काल पूरा किया।
भले ही हम कितना भी कहें कि कथानक नया कहाँ से आएगा। वही मनुष्य, वही अनुभूतियाँ और वही परिणाम। किंतु कथा संसार उसी भाँति बदला है, जैसे मनुष्य बदला। प्रेम कथाएं भी इसी नए मनुष्य की, उसके आचरण और जीवन की कही जाने लगीं हैं। कथानक भी अलग है।
इन कथाओं में उपसंहार तो इतना यथार्थ भरा होने लगा है कि हमें सहसा विश्वास नहीं होता कि हम कोई कहानी पढ़ रहे थे। हम जिसे पढ़ रहे थे, उसे पहचानते हैं। वह अभी यहीं-कहीं था। उससे मिले हुए हैं। कदाचित ये हमारे साथ घटित हुआ है।
दो बरस पहले शांभवी को पढ़ा था “मेलडीज़ ऑफ अ व्हेल” शिल्प ने प्रभावित किया। कथानक ने रुक-रुककर पीछे लौटने को बाध्य किया। उस कथा को कहने की प्रक्रिया में सबसे अधिक सुंदर था, उबाऊ, समय-काटू और बोझिल परम्परागत साँचे से बाहर आना।
इस बरस प्रियंका हर्बोला की कही लंबी कहानी पढ़ी, अविनाशी प्रेम। इस कथा को पढ़ने में अनेक सुंदर बातें रही। किसी कथा को सरलता से कह पाना ही कथाकार की उपलब्धि है। कथा में इस समय के पात्रों का सुघड़ चित्रण अद्भुत है। इतना सुंदर कि जैसे मैं अविरल को जानता हूँ। हो सकता है, थोड़ा सा अविरल मुझ में भी है।
निशि जो कि फर्स्ट पर्सन है, जो कथा कह रही है। समस्त कथानक का केंद्र है। वह कहीं से बनावटी और अप्रत्याशित नहीं है। वह किसी रूपक की भाँति भी नहीं है। उसकी मान्यताओं, प्रतिबद्धता और प्रेम में विचलन नहीं है।
कथा में उसकी उपस्थिति ऊपरी दृष्टि से परम्परावादी जान पड़ सकती है किंतु वास्तव में वह प्रेम की एक गहराई है, जो उदासी की सघनता की ओर ले जाती है। इस चरित्र के लिए ही पहले पंक्ति लिखी है कि जब आप गहरा प्रेम करते हैं तब आप गहराई से अनुभूत करते हैं।
इस कहानी को पढ़कर मैंने पहली बार सोचा कि विक्षिप्त, दीवाने या पागल कहे जाने वाले सजीव पात्रों को करुणा की दृष्टि से देखना। उनके बारे में कुछ नहीं जानते हो, दयालु रहना। हो सके तो समझना कि वे अच्छे मनुष्य हैं।
प्रियंका, आपको बहुत शुभकामनाएँ। और कथाएं रचें। कड़े परिश्रम में गहरा धैर्य भी रखें। छूटे हुए रिक्त स्थानों को पहचानें। कथा को कोई दृश्य लांघने नहीं दें। अंत में थोड़ा ठहराव भी रखें कि एक औपन्यासिक कथा में जीवन का वह हर क्षण उतार सकें, जिसकी पाठक को आवश्यकता है।
मैंने इसे पढ़ा, मुझे सुख हुआ। धन्यवाद।
[पुस्तक अविनाशी प्रेम | प्रियंका हर्बोला | प्रकाशक - अंजुमन प्रकाशन]