कुम्हार के चाक सी नहीं होती है ज़िन्दगी कि सब कुछ उपयोगी और सुन्दर बनाते हुए ठीक वहीं आकर चक्का रुक जाये जहाँ से शुरू हुआ था. इससे से तो हर पल कुछ छीजता जाता है, किसी अल्पव्यय हानि की तरह जिसकी भरपाई कभी संभव नहीं होती. मैं सुबह घर से निकला हुआ शाम होते ही दिन पर फतह हासिल करने के जश्न को किसी के साथ नहीं बांटता क्योंकि जिस तरह से इन दिनों मैं ज़िन्दगी को देखता हूँ. उसे मनो चिकित्सक नकारात्मक समझते हैं. हिसाब इसका भी कुछ खास नहीं है कि जो सकारात्मक माने जाते हैं वे आधी रात को नींद आने से पहले क्या सोचते होंगे ? रात को एक पुराने दोस्त और सहकर्मी मेरे साथ थे. हमने ' ज़िन ', आलू चिप्स, खीरा और नीम्बू के साथ बीत चुके दिनों की जुगाली की. जो मालूमात हुई वह भी ख़ास उत्तेजित नहीं करती है कि हम जब पहली बार मिले थे तब से अब तक अपने सत्रह साल खो चुके हैं. घर लौटा तो हवा तेज थी. घर का पिछवाडा जिसे मैं बैकयार्ड कहता हूँ वहीं परिवार सोया करता है. दीवार के सहारे लकड़ी के बड़े भारी पार्टीशन खड़े किये हुए हैं. रात तीन बजे आस पास उनमे से एक पार्टीशन हवा के तेज झोंके के साथ जमींदोज हो गया...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]