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ना-खुदा मैं शायद तेरा न था

भाई, तुम अगर होते
तो शायद झगड़ कर घुन्ना बने बैठे होते
हम एक दुसरे से
लेकिन तुम मर चुके हो बरसों पहले
और मेरे लिए तुम अब बस एक विषय रह गए हो
क्या कुछ और भी संभव था
जबकि न मैं तुमसे कभी मिला
न देखा तुम्हें ?

महेन की ये पंक्तियाँ मन को आलोड़ित कर देती है. बचपन में ज़िन्दगी से आगे निकल गए, एक अनदेखे भाई को स्मृत करती हुई कविता है. आवेगों को अपने केंद्र के आस पास घनीभूत करती है. भाई के होने और न होने के बीच के अन्तराल को माँ की आँख से देखने का प्रयास करती है. किन्तु कविता अपने आरंभिक संवेदन का गीला भीगा मौसम आगे बना कर नहीं रख पाती और दुनियावी चमत्कारों में विलीन हो जाती है. इस कविता को हाल में एक मित्र ने मुझे मेल किया था और कल मुकेश अम्बानी साहब को ब्रेबोर्न स्टेडियम की दर्शक दीर्घा से नीचे झांकते हुए देखा तो मुझे अनायास इसकी याद हो आई.

आज अनिल अम्बानी ने सड़क पर खड़े होकर अपने बड़े भाई को आवाज़ दी होती तो क्या वे अपने घर की बालकनी में आकर इसी तरह नीचे देखते हुए जवाब देते ?

हर भारतीय, औपनिवेशिक देशों के इस खेल की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है. मैं भी आईपीएल के मैच देखता हूँ क्योंकि मेरे ऍनलाईटेड होने का समय अभी आया नहीं है. मुर्गे लड़ाने और क्रिकेट खिलाड़ियों को खरीद कर लड़ाने में क्या अन्तर है यह समझना चाहता हूँ मगर कल मेरे दिमाग में भाई - भाई थीम वाली फ़िल्में, कहानियां, कविताएं, प्रेरक प्रसंग और प्यार से भरी अनुभूतियाँ घूमती रही. सोचा कि अनिल अम्बानी एक दिन अपने भाई की टीम मुम्बई इंडियंस की यूनीफोर्म में स्टेडियम में आये और नीले रंग के साफे बांधे नाच रहे समर्थकों के बीच टीम को चीयर अप कर अपने घर लौट जाएं.

फिर खाली हो चुके स्टेडियम की दर्शक दीर्घा में एक बड़ा भाई बैठा हो... पनियल आँखों से ख़ुशी छलक रही हो. वहीं घर पर ऑन स्क्रीन अपने चाचा को चीयर अप करता देख कर बच्चे उछल रहे हों और धीरू भाई को याद करती हुई कोकिला बेन मुम्बई से ही श्रीनाथ जी का हाथ जोड़ कर आभार व्यक्त करती हो.

यूं तो मन में ऐसी हज़ार बातें आती है मगर कभी तू नहीं होता तो कभी हौसला नहीं होता. अमीर कज़ालबाश भी यही कहते हैं

हम भी वही तुम भी वही मौसम वही मंज़र वही
फासला बढ़ जायेगा इतना कभी सोचा न था.

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