मौसम की ठण्ड को होली के रंग उडा ले गए तो एडिडास की गंजी भी कुछ चुभने लगी है. घर के बैकयार्ड से लगते कमरे में नाश्ता करके बिस्तर तोड़ रहा हूँ. तीन दिन से पीने को नहीं मिली इसलिए कुछ करने का मन नहीं है. पर्वों और त्योहारों में जाने क्यों पीना सुहाता ही नहीं. इसका एक संभावित उत्तर हो सकता है कि मैं बच्चों और मेहमानों के साथ, इन दिनों को बहुत करीब बैठ कर बिताना चाहता हूँ. खैर इतना अच्छा हो जाना साल भर के बाकी दिनों के लिए काफी है.
आज होली का आखिरी दिन है यानि सामूहिक रंग खेलने के बाद, औरतों का खास दिन. अभी बाहर गली में होली के गीत हैं, गीत क्या है नशे में लिपटे शब्द है. जिनको सींक पर किसी कबाब की तरह सेक कर परोसा जा रहा है. सांवले और काले रंग की देह वाली पैंतीस से पैंतालीस साल की आदिवासी भील समुदाय की औरतों का ये समूह मेरी स्मृति में उन दिनों से है जब मैंने कुछ याद रखना सीखा होगा. वे आज शराब भी पी लेंगी और बिना पिए भी ऐसी गालियां गायेंगी कि मेरे भीतर का मर्द शरमा जायेगा. अभी उन्होंने चार पंक्तियाँ गाई है कि मेरी माँ आ गयी... गीत की अगली पंक्तियाँ उलझ कर एक दबी हुई समवेत हंसी के साथ हवा में खो गयी. उनके स्वर में उल्लास था और निर्मलता भी.
गीत के इस मद भरे निवेदन को जाते हुए बेशर्म फाल्गुन ने लजाते हुए सुना होगा। गीत की चार पंक्तियाँ जो मैं सुन पाया हूँ, राजस्थानी में है. इनका भाष्यांतरण करता हूँ हालाँकि फीलिंग्स की हत्या हो जाएगी मगर मजबूरी है.
उंडी उंडी बेरियों, पातालों पाणी पडियों रे
सींचणियो नी पूगे तो हूँ सालू बांधू रे
पाणी पीतो जा...
घागरिये री छीयाँ में तू थोड़ोक रमतो जा... के पाणी पीतो जा
गहरे गहरे कुओं के पाताल में पानी पड़ा हुआ है, तेरा सींचने का सामान अगर नहीं पहुंचता है तो मैं अपना छोटा रंगीन ओढ़ना बांधती हूँ... पानी पीकर जा. मेरे घाघरे की छाया में थोड़ा खेलता जा... आज तो पानी पीकर जा.
रेत में प्यास का हल नहीं मगर ये तीजणियां तो दूसरी प्यास भड़काने पर आमादा है.
वे चली गई हैं गाती हुई, मेरी माँ ने उनको एक सौ एक रुपये दिए गालियां गाने के एवज में. मन के विकारों का विरेचन, हर साल इसी तरह होता रहे तो बेहतर है. वे अब साल भर तक मुझे सामान्य दिखेंगी उनके सम्मान में कोई कमी नहीं होगी मगर जब मेरी शाम होगी तब तक वे पी और गाकर थक चुकी होंगी.
आज होली का आखिरी दिन है यानि सामूहिक रंग खेलने के बाद, औरतों का खास दिन. अभी बाहर गली में होली के गीत हैं, गीत क्या है नशे में लिपटे शब्द है. जिनको सींक पर किसी कबाब की तरह सेक कर परोसा जा रहा है. सांवले और काले रंग की देह वाली पैंतीस से पैंतालीस साल की आदिवासी भील समुदाय की औरतों का ये समूह मेरी स्मृति में उन दिनों से है जब मैंने कुछ याद रखना सीखा होगा. वे आज शराब भी पी लेंगी और बिना पिए भी ऐसी गालियां गायेंगी कि मेरे भीतर का मर्द शरमा जायेगा. अभी उन्होंने चार पंक्तियाँ गाई है कि मेरी माँ आ गयी... गीत की अगली पंक्तियाँ उलझ कर एक दबी हुई समवेत हंसी के साथ हवा में खो गयी. उनके स्वर में उल्लास था और निर्मलता भी.
गीत के इस मद भरे निवेदन को जाते हुए बेशर्म फाल्गुन ने लजाते हुए सुना होगा। गीत की चार पंक्तियाँ जो मैं सुन पाया हूँ, राजस्थानी में है. इनका भाष्यांतरण करता हूँ हालाँकि फीलिंग्स की हत्या हो जाएगी मगर मजबूरी है.
उंडी उंडी बेरियों, पातालों पाणी पडियों रे
सींचणियो नी पूगे तो हूँ सालू बांधू रे
पाणी पीतो जा...
घागरिये री छीयाँ में तू थोड़ोक रमतो जा... के पाणी पीतो जा
गहरे गहरे कुओं के पाताल में पानी पड़ा हुआ है, तेरा सींचने का सामान अगर नहीं पहुंचता है तो मैं अपना छोटा रंगीन ओढ़ना बांधती हूँ... पानी पीकर जा. मेरे घाघरे की छाया में थोड़ा खेलता जा... आज तो पानी पीकर जा.
रेत में प्यास का हल नहीं मगर ये तीजणियां तो दूसरी प्यास भड़काने पर आमादा है.
वे चली गई हैं गाती हुई, मेरी माँ ने उनको एक सौ एक रुपये दिए गालियां गाने के एवज में. मन के विकारों का विरेचन, हर साल इसी तरह होता रहे तो बेहतर है. वे अब साल भर तक मुझे सामान्य दिखेंगी उनके सम्मान में कोई कमी नहीं होगी मगर जब मेरी शाम होगी तब तक वे पी और गाकर थक चुकी होंगी.