मेरा ये हाल था कि दरसी किताबों में जो नज़्में थी. उनमे मुझे कोई कशिश नहीं मिलती थी. लेकिन अगर किसी शेर या नज़्म का ऐसा टुकड़ा हाथ आ जाता था जिसमे बचपन के शऊर के मुताबिक मुझे रस, तरन्नुम और रंगीनी मिले, तो ये चीज़ें मेरे दिल में ख़ामोशी से उतर जाती थी. मैं खेलते - खेलते उन नज्मों में खो जाता था और अक्सर अपने साथियों और हमजोलियों में उन मौकों पर अपने आपको तनहा महसूस करता था.
ये फ़िराक गोरखपुरी का वक्तव्य है. जो रूहे - कायनात की भूमिका में लिखा हुआ है. मैं सोचने लगा कि हिंदुस्तान का एक खूबसूरत शाईर बचपन में भी कितना ज़हीन था और समझ के हिसाब से तनहा. भविष्य में जिसने भाषा प्रभाग के हर कमरे में बैठ कर अपनी बात को अधिकार पूर्वक कहा. जिसके शेर सुन कर बड़े - बड़े शाईर रश्क और हौसला करते रहे.
हमारे देश में ऐसा कोई विश्वविद्यालय नहीं रहा होगा, जहाँ होस्टल्स के चंद संजीदा कमरों में हर साल इस शाईर के शेर बार बार न पढ़े गए हों. फ़िराक साहब की इमेज इस तरह प्रचारित थी कि आम तौर पर सब मुशायरों का अंत उनके लौंडेबाजी के किस्सों और उसी पर कहे गए चुटीले शेरों से होता रहा है. मजाह निगार कहते रहे हैं कि एक दोशीजा अपने सहपाठी के पीछे तेज कदम थी तो उसे देख कर उन्होंने कहा था "तुम जिसकी फिराक में हो, फ़िराक उसकी फिराक में है."
हमारे देश में ऐसा कोई विश्वविद्यालय नहीं रहा होगा, जहाँ होस्टल्स के चंद संजीदा कमरों में हर साल इस शाईर के शेर बार बार न पढ़े गए हों. फ़िराक साहब की इमेज इस तरह प्रचारित थी कि आम तौर पर सब मुशायरों का अंत उनके लौंडेबाजी के किस्सों और उसी पर कहे गए चुटीले शेरों से होता रहा है. मजाह निगार कहते रहे हैं कि एक दोशीजा अपने सहपाठी के पीछे तेज कदम थी तो उसे देख कर उन्होंने कहा था "तुम जिसकी फिराक में हो, फ़िराक उसकी फिराक में है."
क्या फ़िराक साहब को ये (अप्राकृतिक ?) शौक था ? मुझे नहीं पता. इसकी स्वीकृति उनकी जुबान से अभी तक मैंने पढ़ी नहीं है. ठीक ऐसा ही हाल मकबूल फ़िदा हुसैन का है अगर वे अपनी कला के बारे में किसी नए अनुभव को पाएंगे तो वे भी फ़िराक की ही तरह इन्हीं शब्दों को लिखेंगे कि "...मैं अपनी नई सोच में खो जाता था और अक्सर अपने साथियों और हमजोलियों में उन मौकों पर अपने आपको तनहा महसूस करता था." कला और विज्ञान में नवीनता अनिवार्य है और हर दौर में इसके भले - बुरे दोनों तरह के प्रभाव रहे हैं. इसी नवीन होने की चाह में जब आप सहज स्वीकार्य स्थापनाओं से अलग कुछ पाते हैं तो आपकी कला या फिर लेखनी पक्षद्रोही हो जाया करती है.
रघुपति सहाय "फ़िराक" का शौक तो समाज के ढांचे को ही ध्वस्त करने वाला था. सोचो कैसी दिक्कत हो जाती ? उनके जाने के तीस साल बाद अब कहीं जाके इस तरह के संबंधों पर कानून ने अत्याचार न करने फैसला किया है. आज हम जिस दौर में जी रहे हैं, उसने डिजिटल पोर्नोग्राफी से बारह साल तक के बच्चों को भी अछूता नहीं छोड़ा है. इसके विरुद्ध कोई जागरण मंच वैश्विक दूतावासों को ज्ञापन दे कर मांग नहीं करता कि ये हमारी सभ्यता और धर्म के विरुद्ध है. ये कैसा समाज है और इसकी रुचियाँ कितनी अनूठी है. जो किसी कद में ऊँचे एक सच्चे और गर्व करने लायक शाईर के सुने -सुनाये किस्सों पर चटखारे लेता है, किसी चित्रकार के काम को कला के रूप में नहीं देख सकता और बिना सुने फतवे जारी करता है.
फ़िराक साहब आप अगर लौंडेबाज थे तो भी और नहीं थे तो भी, मकबूल साहब आपने विद्वेष से चित्र बनाये थे या नहीं भी... मैं आपकी लेखनी और रंग से भरे ब्रश को अपने दिल में रखता हूँ.
एंटीक्यूटी लेबल वाली बोतल में कुछ पैग बचे हैं और दिन का खाना इंतजार कर रहा है तो फ़िराक के इस शेर के साथ बिस्मिल्लाह किया जाये.
मजहब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे
तहज़ीब सलीके की, इंसान करीने के