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आओ पी के सो जाएं, महंगाई गयी तेल लेने

कहिये ! प्रधानमंत्री जी आपको एक सवाल पूछने की अनुमति दें तो आप क्या पूछेंगे ? सवाल सुन कर कभी कोई खुश नहीं होता क्योंकि सवाल हमेशा असहज करते हैं। वे कहीं से बराबरी का अहसास कराते हैं और सवाल पूछने वाले को कभी-कभी लगता है कि उसका होना जायज है. २४ मई को ऐसा मौका था कि अमेरिका के राष्ट्रपति ने जिस देश को गुरु कह कर संबोधित किया है, उस देश के प्रधानमंत्री चुनिन्दा कलम और विवेक के धनी राष्ट्र के सिरमौर पत्रकारों के समक्ष उपस्थित थे.

प्रेस कांफ्रेंस में तिरेपन पत्रकारों ने सवाल पूछे, आठ महिला पत्रकार बाकी सब पुरुष. एक सवाल सुमित अवस्थी ने पूछा जिसका आशय था कि "आप गुरशरण कौर की मानते हैं या सोनिया गाँधी की?" इस बेहूदा सवाल पर हाल में हंसी गूंजी, मगर सुमित के सवाल पर मुझे अफ़सोस हुआ. इसलिए नहीं कि ये निजी और राजनीति से जुड़ा, एक मशहूर मसखरा विषय है. इसलिए कि जिस देश पर आबादी का बोझ इस कदर बढ़ा हुआ कि देश कभी भी ज़मीन पकड़ सकता है. मंहगाई ने असुरी शक्ति पा ली है और उसका कद बढ़ता ही जा रहा है. वैश्विक दबाव के कारण मुद्रास्फीति पर कोई नियंत्रण नहीं हो पा रहा है. उस देश के प्रधानमंत्री जब राष्ट्र के समक्ष अपनी जवाबदेही के लिए उपस्थित हों तब इस तरह के मसखरी भरे सवाल हमारी पत्रकारिता के गिरे हुए स्तर की ओर इशारा करते हैं.

मैं सिर्फ एक पत्रकार का आभार व्यक्त करना चाहता हूँ जिसने पहला सवाल पूछा था. उसकी आंचलिक प्रभाव वाली हिंदी भाषा मुझे स्तरीय लगी क्योंकि उसने जानना चाहा कि प्रधानमंत्री महोदय ऐसा कब तक चलेगा कि मंहगाई बढती रहेगी और आम आदमी रोता रहेगा. मैं प्रधानमंत्री जी से कुछ पूछने का अधिकारी नहीं हूँ अगर होता तो एक नहीं तीन सवाल पूछता.

इस बार मानसून सामान्य से बेहतर रहने की उम्मीद है तो क्या सरकार इस विषय पर सोच रही है कि किसानों को लगभग मुफ्त में बीज और खाद दिये जाये ताकि भूखे-नंगे आदमी को नक्सली शरण में न जाएँ. मैं जानना चाहूँगा कि आधार पहचान पत्र बनाने की प्रक्रिया से जुड़े कार्मिकों द्वारा गलत व्यक्ति की पहचान सत्यापित करने पर कितनी सख्त सजा दी जाएगी? ताकि ये तय हो कि इस देश में स्वछंद कौन घूम रहा है और आख़िरी सवाल कि सरकारें इतनी दोमुंही क्यों है कि अच्छे शासन की बात करती हुई आती हैं और आकर लगातार निजीकरण करती जाती हैं.

तीसरे सवाल का उत्तर मुझे पता है कि इससे सरकार और धन्ना सेठों को असीमित मुनाफा होता है. सरकार जवाबदेही से मुक्त हो जाती है, निजी शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन के माध्यम से लूट का खुला खेल खेला जा सकता है. सरकार और कंपनी का फिफ्टी-फिफ्टी. दाल -रोटी मुश्किल से मिले और शराब आसानी से ताकि आओ पी के सो जाएँ. सोने से पहले क़मर जलालाबादी का एक शेर.

सुना था कि वो आयेंगे अंजुमन में, सुना था कि उनसे मुलाक़ात होगी
हमें क्या पता था, हमें क्या ख़बर थी, न ये बात होगी न वो बात होगी।
* * *

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