गाँव बहुत दूर नहीं है बस हाथ और दिल जितनी ही दूरी है. पापा होते तो वे कल गाँव जाने के लिए अभी से ही तैयार हो चुके होते क्योंकि कल आखा तीज है. दुनिया भर में किसानों के त्यौहार फसल की बुवाई से ठीक पहले और कटाई के बाद आते हैं. हमारे यहाँ भी आखातीज बहुत बड़ा त्यौहार है, इसे दीपावली के समकक्ष रखा जाता है. हरसाल इस दिन के लिए प्रशासनिक लवाजमा बाल विवाह रोकने के लिए कंट्रोल रूम बनता है, क्षेत्रवार विशेष दंडाधिकारियों की नियुक्ति करता है और पुलिस थानों के पास हर दम मुस्तेद रहने के आदेश होते हैं मगर फिर भी शादियों की धूम रहती है, कल भी बहुत से नन्हे - नन्हे बच्चे विवाह के बंधनों में बंध जायेगे.
मेरी रूचि रेवाणों में यानि गाँव के लोगों की हर्षोल्लास से भरी बैठकों में सदा से ही बनी रही है. इस ख़ास दिन की शुरुआत हाली अमावस्या से होती है और हर घर में खीच पकना शुरू हो जाया करता है. घर के आँगन के बीच एक पत्थर की ओखली फर्श में जड़ी हुआ करती है उसमे पड़ते हुए मूसल की धमक सूरज के निकलने से पहले सुनाई देने लगती है. आँगन में धान के रूप में बाजरा, मूंग और तिल के साथ गुड़ और कपास रखा होता है. सब घरों के लोग एक दूसरे के यहाँ जाते और खीच खाते हैं किन्तु घर में घुसते ही वे सबसे पहले बाजरा और कपास को सर पर लगाते हैं कि देव कृपा से वर्ष भर के लिए भरपूर धान और पहनने के लिए अच्छे वस्त्र इस बार की फसल से मिलें.
जाने क्यूं मगर हर बीती हुई चीज बहुत अच्छी लगती है जैसे मेरे बुजुर्ग जो अब इस दुनिया में नहीं रहे वे मुझे सबसे अच्छे और परिपक्व काश्तकार लगते थे. उनके हाथ से गिरते बीजों के साथ मेरा विश्वास भी उस नम धरती में गिरता था कि इस बार की फसल व्यर्थ नहीं जाएगी. अब अपने हाथों पर यकीन ही नहीं होता. पहले ऊंट के पीछे बांधे हुए दो हल के निशान में भी लहलहाती फसल दिखाई देती थी मगर अब जब ट्रेक्टर के पीछे बैठ कर बीजोली में से अपना हाथ बाहर निकालता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे हाथों में वो जादू नहीं है जो उन सफ़ेद चिट्टी दाढी वाले तेवटा पहने हुए मेरे पितामह और उनके जैसों में था. जिन्होंने सोने के दानों जैसी जौ से कोठरियां भरी और इस रेत को मानव पदचिन्हों से आबाद कर के रखा.
कल आनेवाले मानसून के लिए शगुन विचार होगा. हर रेवाण में भांत भांत के तरीकों से पता लगाया जायेगा कि बरसात कब होगी और कैसा रहेगा इस बार किसान का भाग्य. जो प्रचलित तरीके हैं उनमे सबसे प्रसिद्द है कच्ची माटी के चार सकोरे जैसे प्याले बनाये जाते हैं और उनका नामकरण आने वाले महीनों के हिसाब से कर दिया जाता है. उनमे पानी भरने के बाद उनके फूटने का इंतजार किया जाता है. जो सबसे पहले फूटता है, उसी महीने में बारिश की आस बंधती है. रुई के दो फाहे बनाये जाते हैं एक काला और एक सफ़ेद फिर दोनों को एक साथ पानी में रखा जाता है अगर काला फाहा पहले डूब जाता है तो मान लिया जाता है कि इस बार जबरदस्त जमाना आयेगा क्योंकि काळ डूब गया है.
जोहड़ के आस पास टिटहरी की तलाश की जाती है फिर देखते हैं कि उसने कितने ऊँचे अंडे दिए हैं अगर वह पाळ से भी ऊपर अंडे देती है तो समझो कि इस बार पानी की कोई कमी नहीं. चींटियों की बाम्बी तलाशी जाती है और उसके पास धान रखा जाता है अगर सवेरे धान बिखरा हुआ न मिले तो समझो कि इस बार बहुत मुश्किल होनेवाली है. तीतर के बोलने के बाद जितने कदम दूर चलने के बाद वह फिर बोलता है बस उतने ही दिन दूर है बरसात.
मानव इन सब बातों पर भरोसा करता है क्योंकि ये सच्ची बातें हैं. हमने घर बनाना भी इन्हीं पंछियों से सीखा है. हम नहीं जानते कि बरसात कितनी होगी मगर ज़मीन पर अंडे देने वाला पक्षी जिसे स्थानीय भाषा में टींटोली कहते हैं उसे पता है कि उसके अंडे किस स्तर पर सुरक्षित रहेंगे. चींटियाँ जानती है कि अब कितनी ऊँचाई पर शिफ्ट हो जाना चाहिए. हम तो खुद शराब बनाना भी नहीं सीख पाए किण्वन अपने आप हुआ था, बस हिम्मत कर के जौ का बासी पानी पी लिया. जो हमने बनाया है वह हमें प्रकृति से दूर ले जाता है पता नहीं हम कब कुछ ऐसा सीखेंगे जो हमें और प्रकृति को एकमेव कर देगा.
मेरी रूचि रेवाणों में यानि गाँव के लोगों की हर्षोल्लास से भरी बैठकों में सदा से ही बनी रही है. इस ख़ास दिन की शुरुआत हाली अमावस्या से होती है और हर घर में खीच पकना शुरू हो जाया करता है. घर के आँगन के बीच एक पत्थर की ओखली फर्श में जड़ी हुआ करती है उसमे पड़ते हुए मूसल की धमक सूरज के निकलने से पहले सुनाई देने लगती है. आँगन में धान के रूप में बाजरा, मूंग और तिल के साथ गुड़ और कपास रखा होता है. सब घरों के लोग एक दूसरे के यहाँ जाते और खीच खाते हैं किन्तु घर में घुसते ही वे सबसे पहले बाजरा और कपास को सर पर लगाते हैं कि देव कृपा से वर्ष भर के लिए भरपूर धान और पहनने के लिए अच्छे वस्त्र इस बार की फसल से मिलें.
जाने क्यूं मगर हर बीती हुई चीज बहुत अच्छी लगती है जैसे मेरे बुजुर्ग जो अब इस दुनिया में नहीं रहे वे मुझे सबसे अच्छे और परिपक्व काश्तकार लगते थे. उनके हाथ से गिरते बीजों के साथ मेरा विश्वास भी उस नम धरती में गिरता था कि इस बार की फसल व्यर्थ नहीं जाएगी. अब अपने हाथों पर यकीन ही नहीं होता. पहले ऊंट के पीछे बांधे हुए दो हल के निशान में भी लहलहाती फसल दिखाई देती थी मगर अब जब ट्रेक्टर के पीछे बैठ कर बीजोली में से अपना हाथ बाहर निकालता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे हाथों में वो जादू नहीं है जो उन सफ़ेद चिट्टी दाढी वाले तेवटा पहने हुए मेरे पितामह और उनके जैसों में था. जिन्होंने सोने के दानों जैसी जौ से कोठरियां भरी और इस रेत को मानव पदचिन्हों से आबाद कर के रखा.
कल आनेवाले मानसून के लिए शगुन विचार होगा. हर रेवाण में भांत भांत के तरीकों से पता लगाया जायेगा कि बरसात कब होगी और कैसा रहेगा इस बार किसान का भाग्य. जो प्रचलित तरीके हैं उनमे सबसे प्रसिद्द है कच्ची माटी के चार सकोरे जैसे प्याले बनाये जाते हैं और उनका नामकरण आने वाले महीनों के हिसाब से कर दिया जाता है. उनमे पानी भरने के बाद उनके फूटने का इंतजार किया जाता है. जो सबसे पहले फूटता है, उसी महीने में बारिश की आस बंधती है. रुई के दो फाहे बनाये जाते हैं एक काला और एक सफ़ेद फिर दोनों को एक साथ पानी में रखा जाता है अगर काला फाहा पहले डूब जाता है तो मान लिया जाता है कि इस बार जबरदस्त जमाना आयेगा क्योंकि काळ डूब गया है.
जोहड़ के आस पास टिटहरी की तलाश की जाती है फिर देखते हैं कि उसने कितने ऊँचे अंडे दिए हैं अगर वह पाळ से भी ऊपर अंडे देती है तो समझो कि इस बार पानी की कोई कमी नहीं. चींटियों की बाम्बी तलाशी जाती है और उसके पास धान रखा जाता है अगर सवेरे धान बिखरा हुआ न मिले तो समझो कि इस बार बहुत मुश्किल होनेवाली है. तीतर के बोलने के बाद जितने कदम दूर चलने के बाद वह फिर बोलता है बस उतने ही दिन दूर है बरसात.
मानव इन सब बातों पर भरोसा करता है क्योंकि ये सच्ची बातें हैं. हमने घर बनाना भी इन्हीं पंछियों से सीखा है. हम नहीं जानते कि बरसात कितनी होगी मगर ज़मीन पर अंडे देने वाला पक्षी जिसे स्थानीय भाषा में टींटोली कहते हैं उसे पता है कि उसके अंडे किस स्तर पर सुरक्षित रहेंगे. चींटियाँ जानती है कि अब कितनी ऊँचाई पर शिफ्ट हो जाना चाहिए. हम तो खुद शराब बनाना भी नहीं सीख पाए किण्वन अपने आप हुआ था, बस हिम्मत कर के जौ का बासी पानी पी लिया. जो हमने बनाया है वह हमें प्रकृति से दूर ले जाता है पता नहीं हम कब कुछ ऐसा सीखेंगे जो हमें और प्रकृति को एकमेव कर देगा.