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Showing posts from March, 2011

कितनी ही बातें, तेरी खुशबू की याद दिलाती है

आरोन तामाशी की कहानी के पन्ने आँखों के सामने खुले हुए हैं. तीन सौ मीटर दूर से थार महोत्सव की सांस्कृतिक संध्या से बिखरी हुई सी आवाज़ें आ रही हैं. मेरे पास में नुसरत साहब गा रहे हैं. दो सप्ताह के सूखे के बाद सामने एक आला दर्ज़े की शराब रखी हुई है. पीना अभी शुरू नहीं किया है. बस कहानी को पढ़ते हुए दो बार आँखें पोंछी और फ़िर तीन बार बरबस मुस्कुराया हूँ. इतालवियों द्वारा बंदी बनाये गए सैनिकों के केम्प से छूट कर आये सिपाही की इस अद्भुत कहानी को पढ़ते हुए जोधपुर के चिरमी बार की एक शाम सामने आ खड़ी हुई. उस रात पहली बीयर पी चुकने के बाद, मैंने उसे फोन किया और कहा कि हम कब मिलेंगे ? उसने पूछा किसलिए ? मेरे मुंह में रखा हुआ बीयर का स्वाद बेहद कसैला हो गया था. मैंने फ़िर से पूछा कि तुम मुझसे नहीं मिलना चाहती ? उसने इस सवाल का क्या उत्तर दिया था याद नहीं लेकिन वो हमारी आखिरी बातचीत थी। फ्लेश बैक में कई साल गुजरने लगे. बस स्टेंड पर रिज़र्वेशन की लाइन में लगी हुई, सिनेमा हाल के बाहर मुझे छाया में खड़ा कर के टिकट लेने के लिए भीड़ को चीरती हुई, अपने दो हाथों में फ्रेंच फ्राइज़, टमाटो केच-अप के पाउच, द...

देख कर उस हसीं पैकर को...

वे छोटे छोटे प्यार याद रखने लायक नहीं होते है. उनका आगमन अचानक हुआ करता है. जीवन में अनमनी सी हताशा, भारीपन और बोझिल होते हुए पलों में कभी प्यार करने के ख़याल मात्र से रोयें मुस्कुराने लगते हैं. रत्नजड़ित मुकुट की जगह मोरपंख जैसे छोटे और अनिवार्य प्यार की तुलना नदी के रंगीन पेबल्स से की जा सकती है. उनका आकर और रंग रूप हमें लुभाता है. उनमे एक और बड़ी खूबी होती है कि वे बहुत नए होते हैं, सर्वथा नए. चूँकि उस नन्हे प्यार की अधिक उम्र नहीं होती इसलिए छीजत अप्रत्याशित हुआ करती है फिर भी कुछ बचा रहा जाता है. उसको याद करते हुए हम अपनी भोहों को थोड़ा नीचे करते हुए और होठों के किनारों को अपनी ठुड्डी की ओर खींचते हुए सोचते हैं कि उसका नाम क्या था ? इस तरह कितने ही प्यार खो जाते हैं. इस नुकसान पर आप भी खुश हो सकते हैं कि शरारत भरी आँखों से देखा, मुस्कुराये और भूल गए. इससे भी अधिक हुआ तो उसकी नर्म हथेली को कुछ एक्स्ट्रा सोफ्टनेस से और थोड़ी अधिक देर के लिए थामा. वक़्त ने साथ दिया तो ये भी कह दिया कि आप बहुत खूब हैं. इसे नासमझ लोगों का प्यार कहा जाता है कि इसकी अनुभूति क्षणभंगुर होने से ब...

कोस्तोलान्यी का लुटेरा

छोटे गरीब बच्चे की शिकायतें, इस कविता संग्रह या स्कायलार्क उपन्यास के कारण देजो कोस्तोलान्यी को जाना जाता है. मुझे ये दोनों शीर्षक पसंद है. बुझे हुए तमाम सालों की राख में बस इतना ही याद आया कि इसे कहीं किसी पन्ने पर पढ़ा होगा. घनीभूत होते हुए ख़यालों और बवंडर से उड़ते आते सवालों के बारीक टुकड़ों के बीच पिछला पखवाडा बीता है. हर काम को ठीक कर देने के तय समय पर कई और काम सिर पर आ पड़ते रहे हैं. विगत साल की गरमी बड़ी दिल फ़रेब थी कि मैं कई चिंताओं से आज़ाद रहा और शामें बेफिक्र आइस क्यूब को पिघलते हुए देखने में बीत गई थी. इधर पाता हूँ कि शाम हुए छत पर गए एक अरसा हो गया है. चारपाई पर बैठे हुए मैंने अपने पांवों को दीवार पर रखा और हंगेरियन कहानियां पढने लगा. जो कहानी सबसे पहले पढ़ी उसका शीर्षक था, लुटेरा. मैंने इसे एक साँस में पढ़ा. शीर्षक पढ़ते समय मैं कहानी के भीतरी तत्वों के बारे में नहीं सोचता हूँ क्योंकि मैं खुद अपनी कहानियों के लिए एबस्ट्रेक्ट से उन्वान चुनता रहा हूँ. देजो की इस कहानी को ह्रदय परिवर्तन की कथा कह कर उसके मनोवैज्ञानिक तत्वों की हत्या नहीं करना चाहता हूँ. ये वास्तव में ह्रद...

ज़िन्दगी मैंने गँवा दी यूँ ही...

जो बाहर था वह अब भीतर सिमट रहा है. रूपायित होने की क्रिया अपने आप में बड़ी कष्टकर होती है. मैं भी खुद को खो देना चाहता हूँ. अपने आप के बाहर से भीतर आने के इन प्रयासों में पाता हूँ कि मेरा बोझा उतर रहा है. जिसे मैं भटकना समझ रहा था वह वास्तव में रास्ता पा लेने की अकुलाहट है. यह प्रक्रिया सम सामायिक न होकर विभिन्न स्थितियों से प्रेरित हुआ करती है. किसी विशेष संवाद के बाद, इस अंदर बाहर के खेल में जब स्थूल के करीब होता हूँ तब अपनी सोच और समाज की दी हुई समझ को उसी मौलिक स्वरूप में बचाए रखने के प्रयास करता हूँ किन्तु सब निरर्थक जान पड़ते हैं. खुशियाँ लौकिक हुआ करती हैं. उनके सारे कारण भौतिक स्वरूप में हमारे पास बिखरे से दिखते हैं. इससे बड़ी ख़ुशी वह होती है, जो भौतिक न होकर मानसिक हो. फिर इससे भी बड़ी ख़ुशी होती है, मन और मस्तिष्क का खाली हो जाना. अपने आप को नए सिरे से देखना. ऐसा करते हुए हमें लगता है कि रंगों पर जमी हुई गर्द छंट गई है. मैं इस साफ़ तस्वीर में देखता हूँ कि मेरी चिंताएं और मेरा अस्तित्व क्षणभंगुर है. मैं वास्तव में बेवजह विचारशील हूँ. मेरी तमाम बदसूरती बाहर से आई ह...

साया दीवार पे मेरा था, सदा किसकी थी ?

उस ऐसी डिब्बे में मेरे पास रात गुजार देने के अलावा एक ही काम था, बीते हुए दो सालों को याद करना. हम बस ऐसे ही मिले थे और घंटों बातें करते रहते थे. सुबहें अक्सर अख़बारों के बारे में बात करते हुए खिला करती थी, यदाकदा इसमें अपने बिछड़े हुए प्रियजनों की सीली स्मृतियों की बरसातें हुआ करती थी. मैंने लिखना बरसों पहले छोड़ दिया था. इसकी वजहें गैर मामूली थी जैसे मुझे उस समय के छपने वालों से सख्त नफ़रत थी. वे निहायत दोयम दर्ज़े के लेखक थे. उनका व्यक्तित्व चापलूसी, घटियापन, लफ्फाजी से बना हुआ था. ऐसे लोगों के साथ अपना नाम देखने से बेहतर था कि फुटपाथ पर उबले हुए अंडे बेचने वाले के ठेले के पीछे खाली छूट गई जगह पर रखी बेंच पर बैठ कर एक पव्वा पी लेना. न लिखने की एक और भी खास वजह थी कि दुनिया के हर कोने में बेहद सुंदर कहानियां मौजूद थी. रेल कोच के भीगे से मौसम में रूखे और बेढब देहयष्टि वाले सह यात्रियों में किसी भी तरह का आकर्षण नहीं था. मेरी उत्सुकता और स्मृतियां ही निरंतर साथ देती रही. मैं कई सालों के बाद इस तरह अकेला सफ़र पर था. रेगिस्तान के एक छोटे क़स्बे में रेडियो पर बोलते हुए, कहानिया...

आपके कोट में अब भी एक पेन्सिल रखी है

उन दिनों हम कॉपी, किताबों में बेढब तस्वीरें बनाते, पिताजी स्कूल से मुस्कुराते हुए लौटते और दादी निराकार दुआएं पढ़ा करती. माँ घर को करीने से बसाते हुए दम ताज़ा दिनों को सुबह शाम उम्र की बरनी में रखती जाती थी. कई सालों बाद एक दिन माँ के हाथ से आग छूट गई कि उम्र की बरनी में रखने के लिए पिताजी के हिस्से का दिन कहीं नहीं मिला. * * * चार एक दिन पहले माँ ने आपके एक कमीज को फिर से तह किया है. और आपके कोट में जाने किसने रखी मगर अब भी एक पेन्सिल रखी है. बच्चे खुश है. वे दादाजी को हमेशा याद करते हैं. याद तो कौन नहीं करता कि गली में दूर तक जाकर नज़र ठहर जाती है. कि आप आते होंगे. मगर आप नहीं आते. आँखों में एक हलकी नमी उतर आती है. इस सब के बावजूद ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत है. चीयर्स, लव यू. .

तेरी याद का एक लम्हा होता हैं ना, बस वह...

रात नसरुद्दीन अपने गधे को पुकारता रहा लेकिन गधा भड़भूंजे की भट्टी से बाहर फैंकी गई राख में लोटता रहा . नसरुद्दीन उससे नाराज़ हो गया . सुबह गधे ने उदास सी रेंक लगा कर कहना शुरू किया . रात , मैंने एक कहानी पढ़ी है . उसका शीर्षक है धूप के आईने में और इसका अर्थ लगाया है कि खिले हुए दिन में जो साफ़ दिखाई देता है . इस कहानी में कहा है कि महबूब का घर दिल में होता है तो फिर इंसान क्या खोजता फिरता है ? कहानी में एक मोची है , वह दुनिया के आम आदमी का प्रतिनिधि . मुझे लगता है कि वह मैं हूँ . ऑफिस जाता हुआ , माँ को अस्पताल ले जाता , बच्चों को हौसला देता . पत्नी के सुखी और संपन्न परिवार के सपने को पूरा करता हुआ . उस सपने को अपने विश्वास से सींचता हुआ . हाँ मैं वही मोची हूँ जो सफ़र के लिए सुरक्षित पांवों की चाह वाले लोगों की मदद करता है . जो अपने जूते और मजबूत करवा लेना चाहती है वह मेरी आत्मा है . उसके बारे में मुझे कुछ खास मालूम नहीं ...