कितनी ही बातें, तेरी खुशबू की याद दिलाती है

आरोन तामाशी की कहानी के पन्ने आँखों के सामने खुले हुए हैं. तीन सौ मीटर दूर से थार महोत्सव की सांस्कृतिक संध्या से बिखरी हुई सी आवाज़ें आ रही हैं. मेरे पास में नुसरत साहब गा रहे हैं. दो सप्ताह के सूखे के बाद सामने एक आला दर्ज़े की शराब रखी हुई है. पीना अभी शुरू नहीं किया है. बस कहानी को पढ़ते हुए दो बार आँखें पोंछी और फ़िर तीन बार बरबस मुस्कुराया हूँ. इतालवियों द्वारा बंदी बनाये गए सैनिकों के केम्प से छूट कर आये सिपाही की इस अद्भुत कहानी को पढ़ते हुए जोधपुर के चिरमी बार की एक शाम सामने आ खड़ी हुई. उस रात पहली बीयर पी चुकने के बाद, मैंने उसे फोन किया और कहा कि हम कब मिलेंगे ? उसने पूछा किसलिए ? मेरे मुंह में रखा हुआ बीयर का स्वाद बेहद कसैला हो गया था. मैंने फ़िर से पूछा कि तुम मुझसे नहीं मिलना चाहती ? उसने इस सवाल का क्या उत्तर दिया था याद नहीं लेकिन वो हमारी आखिरी बातचीत थी।

फ्लेश बैक में कई साल गुजरने लगे. बस स्टेंड पर रिज़र्वेशन की लाइन में लगी हुई, सिनेमा हाल के बाहर मुझे छाया में खड़ा कर के टिकट लेने के लिए भीड़ को चीरती हुई, अपने दो हाथों में फ्रेंच फ्राइज़, टमाटो केच-अप के पाउच, दो आइसक्रीम और बहुत से पेपर नेपकिंस पकड़े हुए एक मुस्कुराती हुई लड़की घूमने लगी थी. ये भी याद आया कि सात साल में कोई एक लम्हा ऐसा न था जब मैं इसे भूल गया था या इसने हर तीसरी शाम मुझे फोन न किया हो. आरोन का नायक अपने घर लौट रहा था और इस ख़ुशी को एक ही पंक्ति में कोई विलक्षण कथाकार ही व्यक्त कर सकता है. जब मैं उसके पास जा रहा होता था तब की उस ख़ुशी को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हुआ करते थे लेकिन महान कथाकारों के पास होते हैं. अच्छा फीचर लिखने के लिए मुझसे सिखाया गया था कि पाठक एंट्रो पढ़ कर ही उसका भविष्य तय कर देता है कि आगे पढ़ा जायेगा या नहीं. इस कहानी का आरम्भ इतना ही रॉकेट इंजन जैसी उर्जा लिए हुए है. उसकी हर एक पंक्ति मेरी गति को बढाती जाती है.

जैसे पेट्रोल इंजन को, उसी तरह उल्लास उसे धकेले लिए जा रहा था. बिना टोपी की चिथड़ा वर्दी और भारी फौजी बूट पहने. अत्तिल्ला के हूणों का ठेठ वंशधर. इतालवी बंदी शिविरों में तीन साल बिता कर वह वापस घर लौट रहा था. मोड़ पर पहुँचते ही अचानक ठिठक कर खड़ा हो गया. उसके सामने गाँव फैला पड़ा था. आँखों ही आँखों में जैसे समूचा दृश्य लुढ़क कर उसके दिमाग में समां गया, सिर्फ गिरजाघर की मीनार बाहर रह गयी थी. उसकी आँखों के कोनों में आंसू तिर आये. अपनी झोंपड़ी के पिछवाड़े पहुँच कर वह रुका. किसी तरह फेंस पर चढ़ कर आँगन में कूद गया, कूदते ही बोला "मेरी झोंपड़ी" और उसकी आवाज़ में हंसी की खनक थी.

कथा के नायक ने अपनी झोंपड़ी के बाहर के आँगन में बेतरतीब उग आई खरपतवार से आशंकित होते हुए आवाज़ लगाई, शारी... दोस्तों वहां उस नायक को उत्तर देने वाला कोई नहीं था. शारी भी उसी तरह जा चुकी थी जैसे पिछले सात सालों से साथ रह रही मेरी उस दोस्त ने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया था. गोविन्द त्रिवेदी के साथ हरी लान वाले टूरिस्ट बार में बैठ कर बीयर पीते हुए मुझे दुनिया हसीं लग रही थी और एक फोन के बाद सब उजाड़ हो गया. मैंने अगली दो बीयर सिर्फ इसलिए पी कि मुझे नशा हो सके मगर नशा उस समय नहीं होता है जब आप टूट बिखर रहे होते हैं. जब आपको सुनने और थामने वाला कोई नहीं होता.

रात बारह बजे जोधपुर से रेगिस्तान की ओर जाने वाली ट्रेन शांत खड़ी थी. मैंने अपने सारे काम निरस्त कर दिए थे. पीठ पर बांधे जाने वाले काले रंग वाले छोटे बैग के साथ बेंच पर बैठा हुआ सिगरेट पी रहा था. रेलवे स्टेशन सुस्ताया हुआ जान पड़ता था. सारा कोहराम मेरे भीतर घुस आया था. शोर करते और एक दूसरे को ठेलते हुए विचार मेरे दिल और दिमाग में टकरा रहे थे. आँखों में आंसू थे और दिमाग कहता था कि तुम उसके दिल का बोझ थे और अच्छा हुआ कि उतर गए. इसे हर बार ख़ारिज किया और अपने सेल की तरफ देखता रहा कि वह अभी चमकने लगेगा.

ओ मेरे नसरुद्दीन, तुम्हें पता है ? आरोन की कथा का नायक अपनी प्रेयसी के जाने के बाद एक गधा खरीद कर लाता है और उससे प्रेम करता है. मैं इसे पढ़ते समय मुस्कुराता हूँ. चिरमी बार बुझ जाती है किन्तु उस महबूब की आँखें फ़िर भी मेरे पास चमकती रहती है.

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