अब भी वहां तन्हाई की खुशबू बसी हुई है. एक खेजड़ी के पेड़ के नीचे थोड़ी देर सुस्ताने के लिए बैठने पहले मैं दो किलीमीटर पैदल चल चुका था. दोपहर के दो बजे भी कुदरत मेहरबान थी. लू बिलकुल नहीं थी जबकि तापमान बयालीस डिग्री के आस पास था. मैं जिस हेलमेट के सहारे धूप से बचाव का सोच आया था वह बाइक के साथ पीछे छूट चुका था. मोटे किन्तु बेहद हलके तलवों वाले सेंडल में हर कदम पर रेत भर रही थी. मैं अपने ब्रांडेड चश्में से दिखती आभासी छाँव में देखता कि सामने कोई घर, कोई आदमी दिख जाये.
खेजड़ी की छाँव में बैठे हुए दूर बिना साफ़ा बांधे एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया. मैं रास्ता पूछने के लिए उसका इंतजार नहीं कर सकता था कि वो पौन किलोमीटर दूर था. आगे किलोमीटर भर की दूरी पर हरे पेड़ दिख रहे थे और उनके बीच किसी का घर होने की आशाएं भी. आखिर मैं नदी की रेत में उतर गया. कोई पांच साल हो गए फ़िर भी सूखी उड़ती हुई रेत में नदी के बहाव का फैलाव साफ़ दीखता था. नदी अपने रास्ते के सब सुख दुःख बहा कर ले गयी थी.
किनारे पर बचे हुए पुराने पेड़ों और झाड़ियों की ओट से हरिणों का एक समूह अचानक मुझ से चौंक कर भागा. पेड़ों पर दुबके बैठे हुए पंछी चुप ही थे. धूल बेहद नरम थी पाँव अन्दर की ओर धंसते ही जाते लेकिन मैं उस घर तक पहुँच ही गया. वहां पानी के कुएं से ट्रेक्टर भरते हुए एक आदमी के पास से घूंघट की आड़ में स्त्री मेरी तरफ देख रही थी. अक्षय तृतीया अबूझ सावा है. इस दिन हर घर विवाहों के निमंत्रण से भर जाता है तो यकीनन मुझे भटका हुआ ना समझ कर राही ही जाना होगा.
मैं जब ठीक उनके पास पहुंचा तो उन्होंने अपना घूंघट उठा दिया और वे ख़ुशी से मुस्कुरा उठी. वे मेरी बुआ थी. पापा की रीयल कजिन. मैंने कहा रास्ता भूल गया हूँ. पापा के ननिहाल जाना था. लेगा परिवार भी यहीं आस पास रहते हैं. बुआ ने कहा थोड़ा आगे चले आये हो. आराम करो मैं चाय बनाती हूँ. मैं छपरे में रखी हुई चारपाई पर अधलेटा सा हो गया. अब तक पापा थे तो वे इस रेगिस्तान के बीच दूर दराज के अपने सभी रिश्तेदारों के यहाँ सुख दुःख में शामिल हो जाया करते थे. उनके इस आत्मीय व्यवहार के कारण ही हमें सभी बहुत प्यार से बुलाते हैं.
धूप में पानी के हौद की गंध और दूर तक फैली निर्जनता मेरी आँखों में बस रही थी. बुआ के घर ठंडा पानी और एक कटोरी गरम दूध पीने के बाद मैंने अपना चश्मा साफ़ किया और सफ़र पर चल पड़ा. रास्ते में उसकी याद आई तो लगा कि पास कुछ भी न हो तो बेहतर है. साहिर भी याद आये. देख इस अरसागाह-ए-मेहनत-ओ-सरमाया में, मेरे नगमें भी मेरे पास नहीं रह सकते, तेरे जलवे किसी ज़रदार की मीरास सही, तेरे खाके भी मेरे पास नहीं रह सकते... कि इस श्रम और धन के युद्ध के मैदान में मेरे पास कुछ नहीं रह सकता, तूं किसी अमीर की एस्टेट सही मेरे पास तो तेरे स्केच भी नहीं रह सकते.
शाम चार बजे पापा के ननिहाल से निकला और रेत में नौ किलोमीटर और सफ़र करके अपने गाँव पहुँच गया. मुझसे पंद्रह साल छोटी बहन के घर में शादी थी. उसका दूल्हा बना हुआ बेटा महज चार साल था. उसकी दुल्हन की उम्र के बारे में पूछा तो मालूम हुआ कि कोई दो या ढाई साल की होगी. मैंने बुजुर्गों के बीच जगह बनायीं और रेत में चलने के कारण अकड़ गए पांवों को सीधा कर लेना चाहा. वही खुशबू थी हलुए और काले चनों की.
बाल विवाह, इस नाम से हज़ार घोड़े दौडाए जाते हैं. सरकारें चौकन्ना हो जाती है. रोकथाम के उपाय किये जाते हैं क्योंकि ये कानून सम्मत नहीं है. आज भी समाज का सबसे बड़ा तबका बदहाली में जी रहा है. गरीबी के इस समाज तक अभी वे कानून पहुंचे ही नहीं है. उनके पास शिक्षा के अभाव में बेड़ियों को तोड़ने का साहस नहीं है और सरकार उनसे सुधर जाने की अपेक्षाएं करती हैं. शिक्षा का निजीकरण, सरकारी नौकरियों में निरंतर कटौती, स्वच्छ पानी नहीं, रोज़गार के साधन नहीं है. मौसम आधारित खेती है और उससे साल भर की कमाई मात्र बारह बोरी बाजरा, चार बोरी मूंग और मौठ. ऐसे में कोई नवजागरण कैसे संभव है. सिर्फ़ एक ही रास्ता दीखता है, लकीर पर चलने का.
कानून को लागू करने की प्राथमिकतायें होनी चाहिए. जैसे पहली हो कि सबको रोटी मिले... जब रोटी की आश्वस्ति हो जाएगी तो बड़े होने पर पर भी दुल्हे-दुल्हने मिलने लगेगी. बाल विवाह का मोह आप जाता रहेगा. जीवन वैभव से भरा और सामन्ती सुविधाओं से सजा आनंदी का सुसुराल नहीं. गले की फांस है इसलिए जो निपट जाये वही जीत है.
क्या अपनी पसंद और समझ से शादियाँ करने वालों का जीवन कष्टविहीन और खुशहाल हुआ करता है ? शायद नहीं, फ़िर भी मैं बाल विवाह के विरुद्ध सिर्फ इसलिए हूँ कि संविधान में आस्था रखता हूँ साथ ही इक्कीस बाईस साल की उम्र के बच्चों का विवाह करने का एक और फायदा है कि विवाह जैसी संस्था के गलत साबित हो जाने पर उन्हें भी गलती का भागीदार बनाया जा सकता है.
विवाह संस्था का जन्म डर और लाचारी से होता है. साहस और ज्ञान से सन्यास जन्म लेता है.
खेजड़ी की छाँव में बैठे हुए दूर बिना साफ़ा बांधे एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया. मैं रास्ता पूछने के लिए उसका इंतजार नहीं कर सकता था कि वो पौन किलोमीटर दूर था. आगे किलोमीटर भर की दूरी पर हरे पेड़ दिख रहे थे और उनके बीच किसी का घर होने की आशाएं भी. आखिर मैं नदी की रेत में उतर गया. कोई पांच साल हो गए फ़िर भी सूखी उड़ती हुई रेत में नदी के बहाव का फैलाव साफ़ दीखता था. नदी अपने रास्ते के सब सुख दुःख बहा कर ले गयी थी.
किनारे पर बचे हुए पुराने पेड़ों और झाड़ियों की ओट से हरिणों का एक समूह अचानक मुझ से चौंक कर भागा. पेड़ों पर दुबके बैठे हुए पंछी चुप ही थे. धूल बेहद नरम थी पाँव अन्दर की ओर धंसते ही जाते लेकिन मैं उस घर तक पहुँच ही गया. वहां पानी के कुएं से ट्रेक्टर भरते हुए एक आदमी के पास से घूंघट की आड़ में स्त्री मेरी तरफ देख रही थी. अक्षय तृतीया अबूझ सावा है. इस दिन हर घर विवाहों के निमंत्रण से भर जाता है तो यकीनन मुझे भटका हुआ ना समझ कर राही ही जाना होगा.
मैं जब ठीक उनके पास पहुंचा तो उन्होंने अपना घूंघट उठा दिया और वे ख़ुशी से मुस्कुरा उठी. वे मेरी बुआ थी. पापा की रीयल कजिन. मैंने कहा रास्ता भूल गया हूँ. पापा के ननिहाल जाना था. लेगा परिवार भी यहीं आस पास रहते हैं. बुआ ने कहा थोड़ा आगे चले आये हो. आराम करो मैं चाय बनाती हूँ. मैं छपरे में रखी हुई चारपाई पर अधलेटा सा हो गया. अब तक पापा थे तो वे इस रेगिस्तान के बीच दूर दराज के अपने सभी रिश्तेदारों के यहाँ सुख दुःख में शामिल हो जाया करते थे. उनके इस आत्मीय व्यवहार के कारण ही हमें सभी बहुत प्यार से बुलाते हैं.
धूप में पानी के हौद की गंध और दूर तक फैली निर्जनता मेरी आँखों में बस रही थी. बुआ के घर ठंडा पानी और एक कटोरी गरम दूध पीने के बाद मैंने अपना चश्मा साफ़ किया और सफ़र पर चल पड़ा. रास्ते में उसकी याद आई तो लगा कि पास कुछ भी न हो तो बेहतर है. साहिर भी याद आये. देख इस अरसागाह-ए-मेहनत-ओ-सरमाया में, मेरे नगमें भी मेरे पास नहीं रह सकते, तेरे जलवे किसी ज़रदार की मीरास सही, तेरे खाके भी मेरे पास नहीं रह सकते... कि इस श्रम और धन के युद्ध के मैदान में मेरे पास कुछ नहीं रह सकता, तूं किसी अमीर की एस्टेट सही मेरे पास तो तेरे स्केच भी नहीं रह सकते.
शाम चार बजे पापा के ननिहाल से निकला और रेत में नौ किलोमीटर और सफ़र करके अपने गाँव पहुँच गया. मुझसे पंद्रह साल छोटी बहन के घर में शादी थी. उसका दूल्हा बना हुआ बेटा महज चार साल था. उसकी दुल्हन की उम्र के बारे में पूछा तो मालूम हुआ कि कोई दो या ढाई साल की होगी. मैंने बुजुर्गों के बीच जगह बनायीं और रेत में चलने के कारण अकड़ गए पांवों को सीधा कर लेना चाहा. वही खुशबू थी हलुए और काले चनों की.
बाल विवाह, इस नाम से हज़ार घोड़े दौडाए जाते हैं. सरकारें चौकन्ना हो जाती है. रोकथाम के उपाय किये जाते हैं क्योंकि ये कानून सम्मत नहीं है. आज भी समाज का सबसे बड़ा तबका बदहाली में जी रहा है. गरीबी के इस समाज तक अभी वे कानून पहुंचे ही नहीं है. उनके पास शिक्षा के अभाव में बेड़ियों को तोड़ने का साहस नहीं है और सरकार उनसे सुधर जाने की अपेक्षाएं करती हैं. शिक्षा का निजीकरण, सरकारी नौकरियों में निरंतर कटौती, स्वच्छ पानी नहीं, रोज़गार के साधन नहीं है. मौसम आधारित खेती है और उससे साल भर की कमाई मात्र बारह बोरी बाजरा, चार बोरी मूंग और मौठ. ऐसे में कोई नवजागरण कैसे संभव है. सिर्फ़ एक ही रास्ता दीखता है, लकीर पर चलने का.
कानून को लागू करने की प्राथमिकतायें होनी चाहिए. जैसे पहली हो कि सबको रोटी मिले... जब रोटी की आश्वस्ति हो जाएगी तो बड़े होने पर पर भी दुल्हे-दुल्हने मिलने लगेगी. बाल विवाह का मोह आप जाता रहेगा. जीवन वैभव से भरा और सामन्ती सुविधाओं से सजा आनंदी का सुसुराल नहीं. गले की फांस है इसलिए जो निपट जाये वही जीत है.
क्या अपनी पसंद और समझ से शादियाँ करने वालों का जीवन कष्टविहीन और खुशहाल हुआ करता है ? शायद नहीं, फ़िर भी मैं बाल विवाह के विरुद्ध सिर्फ इसलिए हूँ कि संविधान में आस्था रखता हूँ साथ ही इक्कीस बाईस साल की उम्र के बच्चों का विवाह करने का एक और फायदा है कि विवाह जैसी संस्था के गलत साबित हो जाने पर उन्हें भी गलती का भागीदार बनाया जा सकता है.
विवाह संस्था का जन्म डर और लाचारी से होता है. साहस और ज्ञान से सन्यास जन्म लेता है.