मैं शायद कभी भूल भी जाऊं मगर अभी तो याद है कि रात के आँगन में उतरने के वक़्त हम लगभग रोज ही बात किया करते थे. एक दिन अचानक इससे तौबा हो गयी. उस दिन के बाद भी मैं वैसे ही हर रात को ऑफिस में होता. कुछ ग्रामोफोन रिकार्ड्स के केट्लोग नंबर दर्ज करता. रिक्रेशन रूम के पिजन बोक्स से ग्लास निकालता और ऑफिस की सीढियों पर आकर बैठ जाता. कभी मन होता तो छत पर चला जाता. वहां से पहाड़ी के मंदिर, आर्मी केंट, एयरफोर्स बेस और शहर से आती रोशनियों को देखता. उन टिमटिमाती हुई रोशनियों में मुझे तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती थी. ऐसी आवाज़ जो मेरे बेहद करीब होती. मैं उससे लिपट कर खुशबू से भर जाया करता.
वे रातें नहीं रही. जिन सीढियों पर बैठ कर तुमसे बात किया करता था, उन पर तन्हाई के आने से पहले ही ऑफिस छोड़ दिया करता. विगत दो महीने से फ़िर शाम की शिफ्ट में हूँ मगर करता क्या हूँ ये ठीक से याद नहीं है. हाँ सात दिन रेत में धूप का सफ़र करते हुए बीते हैं. परसों की धूप बड़ी तल्ख़ थी. तापमान चवालीस डिग्री था और लू के थपेड़ों में कई सारे वाहन गाँव जाने वाले रास्ते में सुस्ता रहे थे. पगरखी से ऊपर उघडे हुए मेरे पांवों को लू जला रही थी. ऐसा लगता था कि सड़क हेयर ड्रायर में तब्दील हो गयी है और मैं उसके भीतर चला जा रहा हूँ.
घर लौटते हुए सोच रहा था कि इंसान का अगले पल होना तय नहीं है फ़िर भी वह कितनी दुश्वारियों की गठरी उठाये हुए दौड़ता-हांफता जाता है. मेरा भी क्या तय है ? लेकिन फ़िर भी आशाओं से भरा दिल हुए ख्वाबों को बुनता जाता हूँ. अपनी रातों को अक्सर नुसरत साहब की आवाज़ के कदमों में डाल कर चाँद-तारे देखा करता हूँ. दिन चाहे जितने गरम हों रात गए छत पर ठंडी हवा आती है. चारपाई पर बैठा हुआ हाल ही मैं पढ़ी गयी कहानियों के बारे में सोचता हूँ और खुद भी कुछ और लिख लेने के इरादे बांधता हूँ. कई बार लगता है कि कहानी संग्रह के लिए काम कर लूं, लेकिन फ़िर याद आता है कि नसीब में सब आधा अधूरा ही लिखा है... रहने दो !
इन दिनों कोई सलीका नहीं है. मन उदास सा है. पीने के लिए वाईट मिस चीफ है और पढने के लिए दो चार किताबें रखी हैं. एक कहानी में उलझा हुआ हूँ. शीर्षक है 'कई रंगों वाला शाल'. इसके लेखक ज़िगमोंद मोरित्ज़ को हंगरी का डिकेंस कहा जाता है. मुझे इस कहानी में पूर्वोत्तर की किसी जागीर की गंध आती है और मेरा अनुमान है कि मोरित्ज़ को मैं और पढ़ पाया तो शायद कह सकूँगा कि वे हंगरी के शरत चन्द्र है. मैं इस कहानी के बारे में कुछ कह नहीं पाउँगा. वैसे कई रंगों वाला शाल प्रेम के धोखे में आई एक युवती का बुढ़ापे में अपने बेटे लिए किया गया तकाज़ा है. इस कथा के सारे तत्व समीचीन हैं. पात्रों के चरित्र भी सुघड़ हैं. लेखनी से आभास होता है कि गरीबी के इस चित्रकार ने अपनी कलम की नोक को व्यर्थ में नहीं घिसा है.
सच कहूं तो मैं अब भी अस्पष्ट हूँ कि इस कहानी के बारे में क्या लिखूं ? बस किताब को उलट-पुलट कर देखता हूँ. उसमें कोई खुशबू आती है. वही अजनबी खुशबू जो कल्पनाओं में बुनी गयी है. जिसे एक रात उसने इल्यूजन कहा था. मैं सोचता रह गया कि मेरे सुख भी कितने सहज उपलब्ध हैं कि सिर्फ़ भ्रम के सहारे महसूस किये जा सकते हैं.
वे रातें नहीं रही. जिन सीढियों पर बैठ कर तुमसे बात किया करता था, उन पर तन्हाई के आने से पहले ही ऑफिस छोड़ दिया करता. विगत दो महीने से फ़िर शाम की शिफ्ट में हूँ मगर करता क्या हूँ ये ठीक से याद नहीं है. हाँ सात दिन रेत में धूप का सफ़र करते हुए बीते हैं. परसों की धूप बड़ी तल्ख़ थी. तापमान चवालीस डिग्री था और लू के थपेड़ों में कई सारे वाहन गाँव जाने वाले रास्ते में सुस्ता रहे थे. पगरखी से ऊपर उघडे हुए मेरे पांवों को लू जला रही थी. ऐसा लगता था कि सड़क हेयर ड्रायर में तब्दील हो गयी है और मैं उसके भीतर चला जा रहा हूँ.
घर लौटते हुए सोच रहा था कि इंसान का अगले पल होना तय नहीं है फ़िर भी वह कितनी दुश्वारियों की गठरी उठाये हुए दौड़ता-हांफता जाता है. मेरा भी क्या तय है ? लेकिन फ़िर भी आशाओं से भरा दिल हुए ख्वाबों को बुनता जाता हूँ. अपनी रातों को अक्सर नुसरत साहब की आवाज़ के कदमों में डाल कर चाँद-तारे देखा करता हूँ. दिन चाहे जितने गरम हों रात गए छत पर ठंडी हवा आती है. चारपाई पर बैठा हुआ हाल ही मैं पढ़ी गयी कहानियों के बारे में सोचता हूँ और खुद भी कुछ और लिख लेने के इरादे बांधता हूँ. कई बार लगता है कि कहानी संग्रह के लिए काम कर लूं, लेकिन फ़िर याद आता है कि नसीब में सब आधा अधूरा ही लिखा है... रहने दो !
इन दिनों कोई सलीका नहीं है. मन उदास सा है. पीने के लिए वाईट मिस चीफ है और पढने के लिए दो चार किताबें रखी हैं. एक कहानी में उलझा हुआ हूँ. शीर्षक है 'कई रंगों वाला शाल'. इसके लेखक ज़िगमोंद मोरित्ज़ को हंगरी का डिकेंस कहा जाता है. मुझे इस कहानी में पूर्वोत्तर की किसी जागीर की गंध आती है और मेरा अनुमान है कि मोरित्ज़ को मैं और पढ़ पाया तो शायद कह सकूँगा कि वे हंगरी के शरत चन्द्र है. मैं इस कहानी के बारे में कुछ कह नहीं पाउँगा. वैसे कई रंगों वाला शाल प्रेम के धोखे में आई एक युवती का बुढ़ापे में अपने बेटे लिए किया गया तकाज़ा है. इस कथा के सारे तत्व समीचीन हैं. पात्रों के चरित्र भी सुघड़ हैं. लेखनी से आभास होता है कि गरीबी के इस चित्रकार ने अपनी कलम की नोक को व्यर्थ में नहीं घिसा है.
सच कहूं तो मैं अब भी अस्पष्ट हूँ कि इस कहानी के बारे में क्या लिखूं ? बस किताब को उलट-पुलट कर देखता हूँ. उसमें कोई खुशबू आती है. वही अजनबी खुशबू जो कल्पनाओं में बुनी गयी है. जिसे एक रात उसने इल्यूजन कहा था. मैं सोचता रह गया कि मेरे सुख भी कितने सहज उपलब्ध हैं कि सिर्फ़ भ्रम के सहारे महसूस किये जा सकते हैं.