सलेटी रंग पर कढ़ाई

उसके हाथ को थामे हुए पाया कि हम उन युद्धबंदियों की तरह थे, जिनके शहरों को अनिवार्य विवशता में ध्वस्त किया जा चुका था. शीशे के पार जो घर दिखाई देते थे, उनकी खिड़कियों में बचपन के बाद के कमसिन दिनों में देखी हुई सूरतें नहीं थी. जून के लगभग बीतते हुए दिनों में गुलाबी दीवारों पर टिकी हुई छतों के ऊपर बादलों के टुकड़े थे. ऐसी उमस भरी दुपहरी की कई कार्बन कॉपी ज़ेहन में पहले से ही मौजूद थी. वे कितने बरस पीछे का खाका खींचती थी ये कोई भूलने जैसी बात नहीं थी. सड़क किनारे का गुलमोहर अभी कच्चा पेड़ था फिर भी उसकी छाँव में एक मुकम्मल इंतज़ार किया जा सकता था.

घर से उस तक पहुँचने वाले रास्ते के बाई तरफ
जलकुम्भी की बढती हुई बेल में खो गया था धूसर तलछट
ठीक मेरे अतीत की तरह, वहां चीज़ें कायम थी
मगर उनको ढक लिया था किसी जिद्दी रंग ने.

वह एक साफ़ खिला हुआ दिन था
गहरी धूप में कुछ बादलों के फाहे,
कुछ कबूतरों का अजाना नाच,
कुछ सूनापन, कुछ कारें और सड़क के मौन किनारे
हमने अपने आंसुओं को पोंछते हुए कहा
"अच्छा हुआ..."

फ़िर उसने कहा, तुम रोओ मत और ख़ुद रोने लगी...

जब तीसरे माले के कबूतर उड़ गए
तब खुद के दिलासे के लिए मैंने उससे एक बात कही
कि ये ज़िन्दगी
हमारी तरकश में सबसे अच्छे अवसर उस वक़्त रखती है,
जब हम निपट अनाड़ी होते हैं.

* * *

बारिशें दूर तक दिखाई न देती थी फ़िर भी उसकी गोल, कत्थई और रोई हुई आँखें एक सीले एकांत से भरी थी. कुछ बिछड़े हुए धागों में अंगुलियाँ घुमाते हुए उसके सूट के किनारों की कढ़ाई के रंग देखता था. वह कुछ इस तरह देखती थी जैसे कभी देखा ही न हो.

बालकनी से रात को देखते हुए कई बार ख़याल आया. वह भी मेरी तरह झूठ बोल रही थी कि अच्छा हुआ...

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