ऐसा नहीं है कि सब अपने होने के बारे में जानते हैं. परिचित शब्द सुनाई देते तो हैं तो उनको दो के पहाड़े की तरह अपनी वह पहचान याद आ जाती है. यह सीखने की प्रक्रिया में शेष बचा रह गया हिस्सा है. जबकि अधिकतर यह भी भूल चुके हैं कि बर्फ के रेगिस्तान वाले देशों के नाम क्या है और अमेरिका में सिर्फ़ हथियारों के कारख़ाने ही नहीं वहां कुछ बहुत लम्बी नदियाँ भी हैं. जिनके किनारे रहने वाले लोग ओबामा को नहीं जानते जैसे बाबा रामदेव अब भी इस रेगिस्तान के एक लोक देवता ही हैं.
यह पीढी जाने किस सम्मोहन में जी रही है कि उनके युवा दिनों के सपनों की निशानियाँ भी शेष नहीं बची. एक अस्पष्ट और लयहीन शोर से घिरे हुए निरर्थक सवाल जवाब में अपना वक़्त बिता रही है. इस टैक दुनिया में इलोक्ट्रोंस के हाहाकार के बीच कुछ पुराने ख़याल के सवालों की गंध जब मुझ तक आती है तो सुख से भर जाता हूँ कि वे दिन कहां गए जब ख्वाबों की लड़कियाँ स्थायी रूप से काई की तरह चिपकी नहीं रहती या फ़िर लडके एक बासी ब्रेड पेकेट के सबसे मोटे वाले टुकड़े की तरह फ्रीज़ में सबसे आगे अटके नहीं रहते थे.
ये शायद फास्ट ट्रेक एवोल्यूशन है कि जिस हुनर से मोहित होकर हमराह हुए, उसे औरतों ने दुनिया का सबसे नाकारा और वाहियात काम घोषित कर दिया और वे भौतिक संसार के असीम ख़यालों में खो गयी हैं. आदमी एक अक्षुण सौन्दर्य वाली ऐसी देह के ख़याल में जीता जा रहा है, जो किसी कार्बन प्रतिमा में ही संभव है. मन को पढना, समझना और साझा करना भूल गया है ये वक़्त... और इस दौर के हम लोग कैसे हैं कि सालिम अली के पंछियों की तरह पतली टांगों में इच्छाओं के टैग लगा कर उड़ते जा रहे है.
जाने दो, मेरी इन बिना सलीके वाली बातों को भूल जाओ. सुनों, मैंने एक और बात बेवजह लिखी है.
उसके शयनकक्ष में किस तरफ खुलती है खिड़की
और दरवाज़ा कहां है, नहीं मालूम
मगर सोने से पहले
उसने फेरा है बेटे के सर पर हाथ
कुछ अधिक गरम स्नेहिल स्पर्श से छुआ है पति को
और फ़िर उदासी के नीले अँधेरे में
दो आंसू खो गए हैं तकिये की कोर पर...
स्कॉच के नए स्वाद को गले लगाता हुआ ऐसा सोचता हूँ.
तुम न सोचना
कि प्रेम मनुष्य को और अधिक तनहा क्यों कर जाता है ?
मैं भी न सोचूंगा कि बातें बेवजह हैं और बहुत सी हैं...
यह पीढी जाने किस सम्मोहन में जी रही है कि उनके युवा दिनों के सपनों की निशानियाँ भी शेष नहीं बची. एक अस्पष्ट और लयहीन शोर से घिरे हुए निरर्थक सवाल जवाब में अपना वक़्त बिता रही है. इस टैक दुनिया में इलोक्ट्रोंस के हाहाकार के बीच कुछ पुराने ख़याल के सवालों की गंध जब मुझ तक आती है तो सुख से भर जाता हूँ कि वे दिन कहां गए जब ख्वाबों की लड़कियाँ स्थायी रूप से काई की तरह चिपकी नहीं रहती या फ़िर लडके एक बासी ब्रेड पेकेट के सबसे मोटे वाले टुकड़े की तरह फ्रीज़ में सबसे आगे अटके नहीं रहते थे.
ये शायद फास्ट ट्रेक एवोल्यूशन है कि जिस हुनर से मोहित होकर हमराह हुए, उसे औरतों ने दुनिया का सबसे नाकारा और वाहियात काम घोषित कर दिया और वे भौतिक संसार के असीम ख़यालों में खो गयी हैं. आदमी एक अक्षुण सौन्दर्य वाली ऐसी देह के ख़याल में जीता जा रहा है, जो किसी कार्बन प्रतिमा में ही संभव है. मन को पढना, समझना और साझा करना भूल गया है ये वक़्त... और इस दौर के हम लोग कैसे हैं कि सालिम अली के पंछियों की तरह पतली टांगों में इच्छाओं के टैग लगा कर उड़ते जा रहे है.
जाने दो, मेरी इन बिना सलीके वाली बातों को भूल जाओ. सुनों, मैंने एक और बात बेवजह लिखी है.
उसके शयनकक्ष में किस तरफ खुलती है खिड़की
और दरवाज़ा कहां है, नहीं मालूम
मगर सोने से पहले
उसने फेरा है बेटे के सर पर हाथ
कुछ अधिक गरम स्नेहिल स्पर्श से छुआ है पति को
और फ़िर उदासी के नीले अँधेरे में
दो आंसू खो गए हैं तकिये की कोर पर...
स्कॉच के नए स्वाद को गले लगाता हुआ ऐसा सोचता हूँ.
तुम न सोचना
कि प्रेम मनुष्य को और अधिक तनहा क्यों कर जाता है ?
मैं भी न सोचूंगा कि बातें बेवजह हैं और बहुत सी हैं...